Sunday, 31 August 2025
डिजिटल युग में व्यंग्य के बदलते आयाम/ डॉ. नीरज दइया
समय के साथ साहित्य की विधाएं बदलती हैं, उनकी प्रस्तुतियों के माध्यम और अंदाज बदलते हैं, और पाठकों के साथ उनका संवाद भी नए रूप में सामने आता है। व्यंग्य, जो अपने मूल रूप में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विसंगतियों पर कटाक्ष करने का माध्यम रहा है, वह भी समय के इस प्रवाह से अछूता नहीं रहा है। आज का युग ‘डिजिटल युग’ कहा जाता है। यह एक ऐसा समय जब तकनीक, इंटरनेट, सोशल मीडिया और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे कारक न केवल जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित कर रहे हैं, वरन अभिव्यक्ति के स्वरूप को भी नए आयामों द्वारा विस्तार दे रहे हैं। इस युग में व्यंग्य की भाषा, विषय, शिल्प और माध्यम आदि सभी घटकों में परिवर्तन देखा जा सकता है।
व्यंग्य जो पहले अखबारों, पत्रिकाओं और किताबों तक सीमित था, अब ब्लॉग, ट्विटर, फेसबुक पोस्ट, यूट्यूब वीडियो, इंस्टाग्राम रील्स और मीम्स के माध्यम से लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुंच रहा है। यह बदलाव केवल मंच अथवा माध्यम का नहीं है, बल्कि दृष्टिकोण और प्रस्तुति का भी है। अब व्यंग्यकार न केवल कलम से, बल्कि कैमरे, एडिटिंग टूल्स और सोशल मीडिया आदि के जरिए भी अपने व्यंग्य को आकार और आयाम दे रहा है। इससे व्यंग्य में एक नया और प्रमुख आयाम सामने आया है जिससे रचना की जहां व्यापक और तत्काल प्रभाव की संभावनाएं बढ़ी है वहीं उसके भीड़ में खो जाने का बड़ा खतरा भी हमारे सामने है।
डिजिटल युग में व्यंग्य के विषय भी पहले की तुलना में अधिक विविध आयामों को लेते हुए विस्तारित हो गए हैं। जहां पहले राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और नैतिक विषयों पर व्यंग्य केंद्रित रहता था, वहीं अब नए विषय यथा- डिजिटल संस्कृति, मोबाइल लत, आभासी संबंध, डेटा गोपनीयता, ओटीटी की दुनिया, ऑनलाइन शिक्षा, ट्रोलिंग, इन्फ्लुएंसर मार्केटिंग, ब्रांड संस्कृति आदि आदि भी व्यंग्य का हिस्सा बन चुके हैं। व्यंग्य अब केवल नीति और नेता तक सीमित नहीं रहा है वह ‘डिजिटल मनुष्य’ के व्यवहार तक पहुंच चुका है। मनुष्य की मूल प्रवृत्तियां और मूल्य भले परंपरागत हो किंतु उनमें वर्तमान की त्रासदियों और सुख-दुख का साहित्य में व्यापक असर देखा जा सकता है।
यह बदलाव केवल स्थितियों का नहीं है, अब व्यंग्य की भाषा और शैली भी बदली है। आज का डिजिटल पाठक लंबा लेख पढ़ने के बजाय छोटे, तीखे, तुरंत असर करने वाले वाक्य या दृश्य को अधिक पसंद करता है। इसलिए व्यंग्य भी ‘संक्षिप्तता’ की ओर झुका है। यहां कहना चाहिए कि लंबे और किसी बात तथ्य को विस्तार से कहने लिखने की परंपरा लुप्त सी होती जा रही है। एक मीम या 280-अक्षरों की ट्वीट में वह प्रभाव डाला जा रहा है, जो पहले एक पूरे निबंध अथवा किसी आलेख से निकलता था। इसका अर्थ यह नहीं कि गहराई कम हुई है, बल्कि यह कि माध्यम के अनुरूप भाषा और शैली में बदलाव हुआ है। इसे सभी माध्यमों ने सहजता से स्वीकार भी किया है।
डिजिटल व्यंग्य में चित्र, वीडियो, संगीत और गति का समावेश भी एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। व्यंग्य अब केवल पठन नहीं, बल्कि ‘दृश्यानुभव’ बन चुका है। जैसे यूट्यूब पर व्यंग्य वीडियो, इंस्टाग्राम रील्स में नेताओं के भाषणों का हास्य संस्करण या ट्विटर पर नेताओं के बयानों पर कटाक्ष- ये सब डिजिटल व्यंग्य की नई विधाओं के रूप में हमारे सामने चुनौती हैं। इनसे व्यंग्य का जन-संचार अधिक तेज़, प्रभावी और व्यापक हो गया है। अब वह केवल समाचार पत्र-पत्रिकाओं अथवा किताबों तक सीमित नहीं रह गया है।
डिजिटल युग में व्यंग्य की लोकतांत्रिकता भी बढ़ी है। अब कोई भी व्यक्ति, बिना बड़े प्रकाशक या मंच के, अपने विचार व्यक्त कर सकता है। इससे व्यंग्य लेखन के अवसर बढ़े हैं और अनेक नए लेखक, कलाकार, मीम क्रिएटर सामने आए हैं। इसने व्यंग्य को ‘जन- जन की आवाज’ बनाया है। लेकिन साथ ही, इसमें एक बड़ा खतरा भी जुड़ा है- व्यंग्य और अपमान, आलोचना और नफरत के बीच की सीमा रेखाएं गायब या कहें धुंधली हो रही हैं। सोशल मीडिया पर ‘व्यंग्य’ के नाम पर अक्सर द्वेषपूर्ण और पक्षपातपूर्ण कंटेंट भी देख सकते है, जो व्यंग्य की गरिमा और उद्देश्य को कमजोर कर रहे हैं। इन माध्यमों ने पहले की दुनिया, हमारे मूल्यों को तहस नहस कर दिया है।
डिजिटल व्यंग्य का एक और आयाम उसका क्षणभंगुर होना है। पहले जो व्यंग्य लेख वर्षों तक पढ़ा और याद किया जाता था, आज वह एक मीम या वीडियो कुछ ही घंटों में वायरल होकर फिर कहीं इस भीड़ में खो जाता है अथवा कहें भुला दिया जाता है। यह गति, हालांकि प्रभावशाली है, परंतु दीर्घकालिक स्मृति या साहित्यिक गहराई में कमी लाती है। ऐसे में यह आवश्यक हो गया है कि डिजिटल व्यंग्यकार अपनी सामग्री में गहराई, मौलिकता और साहित्यिक शिष्टता बनाए रखने की दिशा में विचार करें।
आज के डिजिटल व्यंग्यकारों में कुछ नाम सामने आए हैं जिन्होंने तकनीक का रचनात्मक प्रयोग कर परंपरागत व्यंग्य को एक नई दिशा दी है। ऑनलाइन व्यंग्य लेखन में ब्लॉगर्स, इंस्टाग्राम कंटेंट क्रिएटर्स, यूट्यूबर ने ऐसे विषयों को छुआ है जिन्हें पारंपरिक व्यंग्य में कम स्थान मिला करता था- जैसे युवाओं की बेरोजगारी, तकनीकी सर्वेक्षण, ऐप आधारित जीवनशैली, आभासी रिश्ते आदि। ऐसे लेखक और कलाकार नए दौर की चुनौतियों को व्यंग्य के हथियार से संबोधित कर रहे हैं।
यह कहना गलत नहीं होगा कि डिजिटल युग ने व्यंग्य को अधिक जीवंत, अधिक सशक्त और अधिक समावेशी बना दिया है। अब व्यंग्य न केवल साहित्य में है, बल्कि जन-जन की भाषा बन चुका है। सोशल मीडिया पर एक तीखा ट्वीट या एक कटाक्षपूर्ण मीम सत्ता को उतना ही असहज कर सकता है जितना एक लंबे संपादकीय अथवा व्यंग्य आलेख द्वारा पहले होता था। इस शक्ति के साथ एक जिम्मेदारी भी जुड़ी है- व्यंग्य में विवेक, संयम और उद्देश्य की स्पष्टता बनी रहनी चाहिए। उसकी संभावनाएं और आयामों को खुला रखना चाहिए।
डिजिटल युग में व्यंग्य के इन नए आयामों को समझना केवल साहित्य के लिए आवश्यक नहीं, बल्कि समाज की राजनीतिक और सांस्कृतिक समझ के लिए भी ज़रूरी है। यह युग जिस गति से बदल रहा है, उसमें व्यंग्य ही वह विधा है जो गंभीरता को हास्य की चादर में लपेटकर समाज को उसका यथार्थ दिखाने का कार्य कर रही है। इसलिए, आज का व्यंग्यकार यदि डिजिटल साधनों का उपयोग करते हुए अपनी कलम को नई धार दे रहा है, तो वह न केवल व्यंग्य की परंपरा को आगे बढ़ा रहा है, बल्कि उसे समय के अनुरूप और अधिक प्रासंगिक भी बना रहा है। लेखन के क्षेत्र में भी ऐसे अनुभवों पर अनेक नए व्यंग्यकारों ने कलम चलाई है।
इस प्रकार, डिजिटल युग में व्यंग्य के बदलते आयाम हमें यह संकेत देते हैं कि व्यंग्य एक जीवंत, लचीला और अनवरत विकसित होने वाली विधा है जो अपनी परंपरागत आवरण को त्याग चुका है। अब यह केवल बीते समय का दस्तावेज नहीं, बल्कि वर्तमान का सजीव चित्र और भविष्य की संभावनाओं की नई झलक प्रस्तुत कर रहा है। नई तकनीकें, नए मंच, और नया पाठक वर्ग व्यंग्य को निरंतर नया रूप दे रहे हैं, और यह परिवर्तन हिंदी व्यंग्य साहित्य को और अधिक व्यापक, प्रभावी तथा समकालीन बना रहा है।
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Saturday, 30 August 2025
सुरेश कांत
व्यंग्य विधा को नया तेवर और ताजगी
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सुरेश कांत जी दूसरे व्यंग्यकारों से अलग है। वे एक अद्वितीय व्यंग्यकार हैं। वे बेबाकी से सच को बयाँ करते हैं। उन्होंने व्यंग्य को एक नई धार दी हैं। उनका व्यंग्य लेखन दिनों दिन और अधिक पैना होता जा रहा है। उन्होंने व्यंग्य विधा को नया तेवर और ताजगी प्रदान की हैं।
- दीपक गिरकर
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#पंचकाका_कहिन
सुरेश कांत का व्यंग्य संसार
● अफसर गए बिदेस
● पड़ोसियों का दर्द
● बलिहारी गुरु
● देसी मैनेजमेंट
● चुनाव मैदान में बन्दूकसिंह
● अर्थसत्य
भाषण बाबू
● मुल्ला तीन प्याजा
● कुछ अलग (2018)
● बॉस, तुसी ग्रेट हो! (2018)
● लेखक की दाढ़ी में चमचा (2020)
● सुरेश कांत चयनित व्यंग्य-रचनाएँ
● ऐसा देश है मेरा
● मूल्यों की ममी
व्यंग्य-उपन्यास
● 'ब' से बैंक (1980)
● जॉब बची सो… (2019)
● सियासत
व्यंग्यालोचन
● हिंदी गद्य लेखन में व्यंग्य और विचार
● नरेन्द्र कोहली विचार और व्यंग्य
● व्यंग्य : एक नई दृष्टि
सुभाष चंदर
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निखालिस हास्य और निखालिस व्यंग्य लिखना हर किसी के वश में नहीं होता। सुभाष चंदर को पढ़ते हुए सधे कदमों से रस्सी पर चलकर अपना करतब दिखाने वाले कुशल नट का स्मरण होता रहता है और वे नट विद्या में निपुण नट माफिक व्यंग्य विधा में निष्णात व्यंग्यकार नजर आने लगते हैं जो कथ्य, शिल्प, शैली, भाषा, व्यंजना, कहन आदि के सभी स्तरों पर सधे हुए कदम रखते हुए आगे से आगे बढ़ते हुए लक्ष्य तक पहुंचते हैं।
- बुलाकी शर्मा
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#पंचकाका_कहिन
सुभाष चंदर का व्यंग्य-संसार
● माफ़ कीजिये श्रीमान
● इंसानियत का शो
● आइये स्वर्ग चलते हैं
● कल्लू मामा जिंदाबाद
● थोड़ा हँस ले यार
● बेबी किलर
● हद कर दी आपने
● हँसती हुई कहानियाँ
● बजरंग लल्ला की बारात
● श्रेष्ठ हास्य व्यंग्य- सुभाष चंदर
● चुनिंदा व्यंग्य- सुभाष चंदर
● गौरतलब व्यंग्य
● मेरी व्यंग्य कथाएँ
● एक भूत की असली कहानी
● कुछ हास्य - कुछ व्यंग्य
● दाने अनार के
● हँसते रहो (संस्मरणात्मक व्यंग्य-लेखन)
● शुभचिंतकों की परंपरा
व्यंग्य उपन्यास
● अक्कड़-बक्कड़
संपादन
● बीसवीं सदी की चर्चित व्यंग्य रचनाएं
● बीसवीं सदी की चर्चित हास्य रचनाएं
व्यंग्य-विधा के इतिहास की पहली पुस्तक-
● हिन्दी व्यंग्य का इतिहास
Friday, 29 August 2025
ज्ञान चतुर्वेदी
व्यंग्य की 'ज्ञान परंपरा'
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ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य में इस कदर मुब्तला लेखक हैं कि व्यंग्य से उन्हें अलगाकर देख पाना संभव नहीं। मानो ज्ञान और व्यंग्य एक-दूसरे के पर्याय बन गए हों, सिक्के के दो कभी न अलग होने वाले पहलुओं की तरह। वे हमारे समय के सर्वाधिक समर्थ व्यंग्यकार हैं। अपने व्यंग्यों में वे समय-समाज के निर्मम सत्यों का मात्र उद्घाटन ही नहीं करते बल्कि उन पर गहन वैचारिक टिप्पणी करते हैं। ये वैचारिक टिप्पणियां भी व्यंग्य की बहुआयामिकता से सम्पन्न होने के कारण पाठक को सहज रूप से प्रभावित करती हैं। कहना न होगा कि व्यंग्यदृष्टि और लोकदृष्टि के सम्यक बहाव में ज्ञान लोकप्रियता और साहित्यिकता की खाई को भरसक पाटने का भी कार्य करते हैं। हम आज उस समाज के नागरिक हैं जहां नंगापन एक जीवनशैली के रूप में स्वीकृत हो गया है। विसंगतियों से भरपूर इस उत्तर आधुनिक समय में ज्ञान चतुर्वेदी के व्यंग्य लेखन को एक ज़रूरी हस्तक्षेप की तरह देखा और पढ़ा जाना चाहिए। कई अर्थों में वह परसाई और जोशी के मानस अभिमन्यु की तरह विकृत यथार्थ के उस चक्रव्यूह को भेदते प्रतीत होते हैं जहां आम लेखक की पहुंच नहीं। उदात्त मानवीयता से परिपूर्ण अपने उद्देश्य में जिसकी नीयत और पक्षधरता शीशे की तरह एकदम साफ है। अपनी इस यात्रा में वे नितांत नई परंपरा गढ़ते हैं जिसे व्यंग्य की 'ज्ञान परंपरा' कहा जाना चाहिए।
- राहुल देव
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#पंचकाका_कहिन
ज्ञान चतुर्वेदी जी के व्यंग्य-संसार
व्यंग्य-संग्रह :
● प्रेत कथा
● दंगे में मुर्गा
● मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ’
● बिसात बिछी है
● ख़ामोश! नंगे हमाम में हैं
● प्रत्यंचा
● बाराखड़ी
● अलग
● रंदा
● गैरतलब व्यंग्य
● संकलित व्यंग्य
● चर्चित व्यंग्य
व्यंग्य-उपन्यास :
● नरक-यात्रा
● बारामासी
● मरीचिका
● हम न मरब
● पागलख़ाना
● स्वांग
● एक तानाशाह की प्रेमकथा
प्रेम जनमेजय
प्रेम जनमेजय : व्यंग्य की चौथी धारा
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प्रेम जनमेजय ने नई जमीन तोड़ी है और सही जगह तोड़ी है। प्रेम ने रेत में बीज डालने का काम किया है। उन्होंने अपनी सोच को तोड़कर बाहर आने का प्रयास किया है। जब प्रेम ने लिखना शुरु किया तब हिंदी में व्यंग्य-लेखन के तीन स्कूल चल रहे थे; आज भी चल रहे हैं- परसाई स्कूल, शरद जोशी स्कूल और त्यागी स्कूल। हर स्कूल की अपनी पद्धति, सिलेबस और केरीकुलम। ... मैं ये तो नहीं कहूंगा कि प्रेम जनमेजय स्कूल भी चल पड़ा है- पर इधर के बहुत सारे युवा लेखन को पढ़कर लगता है कि प्रेम जनमेजय स्कूल का भी उद्घाटन हो गया है।
- डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी
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#पंचकाका_कहिन
प्रेम जनमेजय का व्यंग्य-लेखन
● राजधानी में गंवार
● बेर्शममेव जयते
● कौन कुटिल खल कामी
● हंसो हंसो यार हंसो
● ज्यों ज्यों बूड़े श्याम रंग
● लीला चालू आहे!
● भ्रष्टाचार के सैनिक
● सींग वाले गधे
● मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ
● चुनिंदा व्यंग्य
● चयनित व्यंग्य
व्यंग्य नाटक-
● तीन व्यंग्य नाटक व्यंग्य
● क्यूं चुप तेरी महफल में है
आलोचना-
● आजादी के बाद का हिंदी गद्य व्यंग्य
● प्रसाद के नाटको में हास्य व्यंग्य
● भारतीय साहित्य के निर्माता : श्रीलाल शुक्ल
संपादन-
● धर्मवीर भारती : धर्मयुग के झरोखे से
● नरेंद्र कोहली एक मूल्यांकन
● व्यंग्य सर्जक : नरेंद्र कोहली
● बींसवीं शताब्दी उत्कृष्ट साहित्य
● हिंदी व्यंग्य की धार्मिक पुस्तक: परसाई
● शरद जोशी : हिंदी व्यंग्य का नाविक
● हम भी व्यंग्य की ज़बान रखते हैं
● खुली धूप का यात्री : रवींद्रनाथ त्यागी,
● हिंदी व्यंग्य में नारी स्वर
● व्यंग्य के नेपथ्य
संपादन (पत्रिका)-
● व्यंग्य-यात्रा (त्रैमासिक) वर्ष 2004 से नियमित।
Wednesday, 27 August 2025
हरीश नवल
हरीश नवल का लेखन-कौशल
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संदर्भ और प्रसंग के तारतम्य को साधे रखना हरीश नवल का लेखन-कौशल है। हल्के से मारते हैं, थपका-थपका कर, बड़े प्यार से, विनोद भाव से। कहीं भी चाबुक की फटकार सुनाई नहीं देती, लेकिन चोट उससे कहीं ज़्यादा लगती है। यहां ज्ञानपीठ के न्यासी अशोक जैन के कथन को उद्धृत करना समीचीन प्रतीत होता है- 'किसी साहित्य की गहनता जानने के लिए उसकी कविता पढ़ना आवश्यक है, विस्तार और व्यापकता समझने के लिए उसका कथा साहित्य पढ़ना चाहिए और यदि हम उसका पैनापन परखना चाहते हैं तो हमें उसका व्यंग्य लेखन देखना होगा।'
- डॉ. आरती स्मित
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हरीश नवल : व्यंग्य साहित्य
1. बागपत के ख़रबूज़े/ व्यंग्य-संग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ, 1987
2. पीली छत पर काला निशान/ व्यंग्य-संग्रह, पराग प्रकाशन, 1991
3. दिल्ली चढ़ी पहाड़/ व्यंग्य-संग्रह, शुभम प्रकाशन, 1993
4. वाया पेरिस आया गांधीवाद/ व्यंग्य-संग्रह, नवराज प्रकाशन, 2002
5. माफ़िया ज़िंदाबाद/ व्यंग्य-संग्रह, प्रभात प्रकाशन, 2018
6. अमरीकी प्याले में भारतीय चाय/ व्यंग्य-संग्रह, साहित्य संचय प्रकाशन, 2019
7. गांधी जी का चश्मा/ व्यंग्य-संग्रह, प्रलेक प्रकाशन, दिल्ली, 2021
8. बोगी नंबर 2003/ व्यंग्य-उपन्यास, प्रभात प्रकाशन, 2021
9. इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ/ डायमंड प्रकाशन, दिल्ली, 2012
10. अथ गरीब चिंतन/ व्यंग्य-कथाएँ, प्रलेक प्रकाशन, 2021
11. डॉलर भाग्य विधाता/ व्यंग्य-संग्रह, न्यू वर्ड पब्लिकेशन, 2022
12. ग़ौरतलब व्यंग्य/ संपादक: सुभाष चंदर, भारत पुस्तक भंडार, दिल्ली
13. हरीश नवल : संकलित व्यंग्य/ नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली
14. दीनानाथ के हाथ/ व्यंग्य-कथाएँ, आशा प्रकाशन गृह, नई दिल्ली
15. हरीश नवल : तीस व्यंग्य रचनाएँ/ संपादक ललित्य ललित, ए.पी.एन. प्रकाशन, दिल्ली
16. कुछ व्यंग्य की कुछ व्यंग्यकारों की/ व्यंग्यालोचन, हिंदी साहित्य निकेतन, बिजनौर
17. चयनित व्यंग्य रचनाएँ/ न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन्स, 2022
18. मेरी हास्य और व्यंग्य कथाएँ (प्रेस में)
हरीश नवल
डॉ. हरीश नवल के चश्मे से व्यंग्य को देखना
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डॉ. नीरज दइय
आज हिंदी व्यंग्य को जिन गिने-चुने नामों ने पहचान दी है, उनमें एक प्रमुख नाम हरीश नवल का है। पहली पुस्तक पर आपको युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना ध्यानाकर्षकण का विषय रहा है। किंतु बाद में आपकी सतत साहित्य-साधना में भाषा का सयंमित व्यवहार विशेष उल्लेखनीय उपलब्धि है। सद्य प्रकाशित व्यंग्य कृति ‘गांधी जी का चश्मा’ के माध्यम से व्यंग्यकार हरीश नवल यह प्रमाणित करते हैं कि व्यंग्य में बहुत कम शब्दों में बहुत गहरी-गंभीर बात कही जा सकती है।
शीर्षक व्यंग्य ‘गांधी जा चश्मा’ की बात करें तो आरंभ में लगता है कि गांधी का चश्मा जो 2.55 करोड़ रुपये में हुआ नीलाम और अमरीका के एक व्यक्ति ने खरीदा उसका कहीं कोई संदर्भ होगा। किंतु नहीं यह व्यंग्य विगत सात दशकों से दो अक्टूबर को गांधी जंयती पर होने वाले मेलों पर सधा हुआ व्यंग्य है। इसके शीर्षक और आरंभ को पढ़ते हुए कहानीकार संजीव की कहानी ‘नेता जी का चश्मा’ का स्मरण होता है, जिसमें एक बालक की देशभक्ति को बहुत सकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है। यहां इस व्यंग्य रचना में अहिंसा नगर में जंयती समारोह आयोजन से पूर्व गांधी जी की मूर्ति जो एक बहुत बड़े शिल्पकार ने बनाई है का चश्मा गायब होने का प्रकरण है। बिना चश्मे के गांधी जी आंखें जैसे उनमें अश्रु भरे हैं, होंठ बहुत सूखे हुए हैं... तिस पर व्यंग्कार का कहना कि ‘गांधी जी के चेहरे पर चश्मे के कारण गांधी जी का पूरा चेहरा कहां दिखता था’ हमारे सारे चश्में उतार देने को पर्याप्त है। आखिर चश्मा गया कहां का रहस्य अंत में स्वयं गांधी जी के श्रीमुख से किया गया है। गांधी जी के पूरा कथन स्वयं में परिपूर्ण व्यंग्य है- ‘सुनो तुमसे ही कह सकता हूं, तुम जैसे मेरे आचरण का अनुकरण करने वाले अब मुट्ठी भर ही रह गए हैं, विगत सात दशकों से देखता आ रहा हूं कि मेरे विचारों की रोज हत्या हो रही है, जबकि मेरी हत्या केवल एक बार ही हुई, सोचता रहा, देखता रहा कि बदलती हुई सफेद, लाल, केसरी आदि टोपियों वालों में कोई तो मेरे सपनों को आरंभ करेगा लेकिन सभी एक से ही आचारण को अपनाते रहे। मेरी सोच धीरे-धीरे मरती रही। अब मुझसे देखा नहीं जाता इसलिए मैंने खुद ही अपना चश्मा उतार कर नष्ट कर दिया।’
हरीश नवल का मानना है कि व्यंग्य की चोट दुशाले में लपेट कर मारे गए जूते जैसी होनी चाहिए। वह सीधा सपाट व्यंग्य प्रस्तुत नहीं करते, वरन कुछ पेच और घुमाव उनकी प्रवृत्ति है। स्वयं को बिना मुखर किए जब व्यंग्यकार कभी बहुत गहन-गंभीर बात प्रस्तुत करता है तो जाहिर है वह पाठकों से एक ज्ञान-स्तर की भी मांग और उम्मीद करता है। ऐसी अपेक्षा के पूरित नहीं होने पर पाठक थम जाता है और सोचने लगता है कि क्या कह दिया गया है... यह सोचने अथवा अवकाश देना हिंदी व्यंग्य में विरल है। हरीश नवल ने वर्षों अध्यापन का कार्य किया और वे साहित्य के विधिवत अध्येयता रहे हैं, अतः उनकी अनेक रचनाओं में साहित्य-इतिहास और परंपरा को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
‘बिल्लो रानी और ईश वंदना’ में फिल्मी गीतों के माध्यम से भावक के भावों के बदले जाने का और जहां चाह वहां राहा कि उक्ति का विस्तार है। जहां जो नहीं है वहां वह जो मनवांछित है को ढूंढ़ लेने की प्रवृति को यहां अतिरेक के साथ प्रस्तुत करते हुए हरीश नवल पाठकों को हास्य के द्वार तक ले जाते हैं, किंतु कोई खुल कर या खिलखिला कर हंसे उससे पहले ही व्यंग्य की मार से वह तिलमिलाहट से भर देते हैं। कहना होगा कि हरीश नवल के व्यंग्यकार में उनका कहानीकार अधिक मुखर होता है, तब वे अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली व्यंग्य देते हैं। ‘उफ़ भईया जी चोट’, ‘जन विकास यात्रा’, ‘देश की मिट्टी और नाराद जी’ अथवा ‘प्रिय राजेन्द्र जी’ जैसे व्यंग्य इसके उदाहरण है। देश में नेताओं की मोनोपोली, धन का अपव्यय, व्यवस्था की खामिया और आधुनिक समय-समाज में घर करती संवेदनहीनता को प्रस्तुत करते हुए हरीश नवल के व्यंग्य यदि अपने पाठक में संवेदना जाग्रत करते हैं तो यह बड़ी सफलता है। आधुनिक युग में वैसे तो पाठक सर्वज्ञान है और सब कुछ जानता है, जो जानता हो उसको कुछ बताना बेहद मुश्किल काम है फिर भी व्यंग्यकार उसके जानने को बढ़ाते हुए जैसे द्विगुणित करने का मुश्किल काम बड़ी सरलता से करने का हुनर रखते हैं।
‘निदान नींद का’ की बात करें जो मूलतः लघुकथा के रूप में है और बड़ा मारक व्यंग्य यहां सांकेतिक है। राजा आदंदारित्य का नियम था कि वह प्रातः महामंत्री के साथ नगर का विहंगम दृश्य देखते और जहां से धुआं उठता दिखाई नहीं देता तो महामंत्री को पता करने का आदेश देता कि उस घर में अंगीठी क्यों नहीं जली। वह उसकी व्यवस्था करने का आदेश भी देते और महामंत्री इस नियम से दुखी क्योंकि वे प्रातः की नींद में कोई बाधा नहीं चाहते थे। महामंत्री ने अपने मित्र राज-वैज्ञानिक तारादत्त से निदान के रूप में धुएं रहित अंगीठी का अविष्कार करवा पर्यावरण की शुद्धता की दुहाई देते हुए राजाज्ञा प्राप्त कर वैसी अंगीठी हर घर में पहुंचा दी और अब राजा को कहां भोजन बना और कहां नहीं इसका भेद नहीं मिल पाता था। प्रतीक के माध्यम से व्यवस्था पर सुंदर कटाक्ष किया गया है, किंतु अब ऐसे राजा नहीं रहे और महामंत्री ही राजा बन गए हैं- जो जागते हुए भी गहरी नींद में ही रहते हैं। ऐसी अनेक छोटी और मध्यम आकार की रचनाओं को पढ़ते हुए अभिभूत हुआ जा सकता है, यह प्रभाव कृति और कृतिकार की विशेषता है।
शब्दों के श्लेष और वक्रोकी के अतिरिक्त भाषा-व्यंजना के माध्यम से हरीश नवल हमारे समक्ष ऐसे व्यंग्य को प्रस्तुत करते हैं जो दूसरों से अलग और अपने अंदाज के कारण प्रभावशाली है। वैसे इस पुस्तक की यह विशेषता है कि व्यंग्य भले आकार में छोटा अथवा बड़ा हो, वह निबंध, कथा अथवा लघुकथा के रूप में हो किंतु वह सदैव अपने शिल्प, भाषा के साधा हुआ है, यहां नए विषयों की तलाश के कारण व्यंग्य प्रभावशाली है। पुस्तक के अंत में हरीश नवल के व्यंग्य अवदान को रेखांकित करता पंद्रह पृष्ठों का एक आलेख ‘व्यंग्य कमल : हरीश नवल’ बिना लेखक के नाम के दिया गया है। लेखक प्रकाशक किसी की भी भूल रही हो पर गूगल बाबा नहीं भूलते और उनके द्वारा पता चल सकता है कि यह आलेख डॉ. आरती स्मित द्वारा लिखा गया, जो ‘सेतु’ में वर्ष 2017 में प्रकाशित हुआ है। इस आलेख के अंतिम अनुच्छेदों को हटा कर पुस्तक के अंत में गांधी बाबा को चित्र में मुस्कुराते हुए दिखाया गया है। इस कृति के माध्यम से डॉ. हरीश नवल के चश्मे से समकालीन व्यंग्य को देखना बेहद सुखद है।
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पुस्तक का नाम : गांधी जी का चश्मा ; लेखक : हरीश नवल
विधा – व्यंग्य ; संस्करण – 2021 ; पृष्ठ संख्या – 132 ; मूल्य – 200/- रुपए
प्रकाशक – किताबगंज प्रकाशन, सवाई माधोपुर
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अरविंद तिवारी
समय की कसौटी पर प्रासंगिक अरविंद तिवारी के व्यंग्य
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डॉ. नीरज दइया
Tuesday, 26 August 2025
अरविंद तिवारी
पुस्तक समीक्षा-
लिफाफे में कैद होती कविता पर जरूरी चिंतन (लिफ़ाफे में कविता)
डॉ. नीरज दइया
एक समय था जब समाज से साहित्य को जोड़ने की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी थी कविता। मंचीय कविता ने अपने समाज और समय को अभिव्यक्त करते हुए न केवल उसे प्रभावित किया वरना नए आयाम भी स्थापित किए। यह मजबूत कड़ी जो एक सेतु के रूप में थी, कैसे हमारे समय और समाज में धीरे-धीरे कमजोर होती चली गई इसका संपूर्ण विवरण जानने के लिए हमें अरविंद तिवारी का नया व्यंग उपन्यास "लिफाफे में कविता" देखना चाहिए। एक दौर में लेखक स्वयं मंचीय कविता से जुड़े रहे हैं और उनका लंबा अनुभव रहा है। कवि सम्मेलनों के द्वारा कविता के घटते स्तर और पतन के जिम्मेदार कारणों की तलाश में यह व्यंग्य उपन्यास लिखा गया है।
कृति के विषय में फ्लैप पर लिखा गया है-
“कवि-सम्मेलनों का ग्लैमर किसी से छुपा नहीं है। हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कवि-सम्मेलन शुरू हुए थे। स्वतंत्रता संग्राम में कवि-सम्मेलनों की महती भूमिका रही है। हिंदी के प्रति इतना अनुराग था कि बड़े-बड़े कवि कवि-सम्मेलनों में निःशुल्क कविता पाठ करते थे। त्याग की विरासत वाले कवि-सम्मेलन अब एक उद्योग का रूप धारण कर चुके हैं। इस विषय पर अभी तक कोई उपन्यास नहीं लिखा गया। 'लिफाफे में कविता' पहला उपन्यास है, जो व्यंग्य के जरिए कवि-सम्मेलनों की पड़ताल करता है।
आज कवि-सम्मेलनों में कविता के नाम पर चुटकुले पढ़े जाते हैं। साहित्यिक कविताओं का कमरा बंद हो गया है। कवि-सम्मेलन लाफ्टर कार्यक्रमों का पर्याय हो गए हैं। धन-लिप्सा और यश-लिप्सा ने कवि-सम्मेलन को भोंड़ी शक्ल में तब्दील कर दिया हैं। बड़े मंचीय कवियों की खड़ाऊं उठाकर कोई भी सफलता प्राप्त कर सकता है। फिल्मों में ही नहीं, कवि-सम्मेलनों में भी कवयित्रियों को कास्टिंग काऊच का शिकार होना पड़ता है। इस उपन्यास का कथानक यथार्थ के इतना करीब है कि पाठक को लगता है यह चित्रण तो उसके देखे-सुने हुए कवि का है।”
यह टिप्पणी पूरे व्यंग्य उपन्यास का एक खाका हमारे समाने प्रस्तुत करती है। कवि सम्मेलन और कविता का गिरता स्तर व्यापक विषय जरूर है परंतु इसे एक व्यंग्य उपन्यास में निर्वाह करना बड़ा जोखिम भरा रहा है जिसे लेखक ने शानदार ढंग से पूरा किया है। अरविंद तिवारी मेरे प्रिय लेखकों में से एक हैं। विगत तीन दशकों से मैं उनका पाठक रहा हूं। जब वे मेरे शहर बीकानेर में शिक्षा विभाग की मासिक पत्रिका "शिविरा" के संपादक रहे तब उनसे मिलने-बतियाने का अवसर भी मिला है। मेरे विचार से तिवारी जी के लेखन में सर्वाधिक प्रभावित करने वाली बात उनका रचना के लिए धैर्य और रचनाकर्म के प्रति गंभीरता है।
अरविंद तिवारी के व्यंग्य उपन्यास ‘दिया तले अंधेरा’ (1997) को मैं शिक्षा जगत की विद्रूपताओं पर प्रकाश डालने वाला सर्वश्रेष्ठ व्यंग्य उपन्यास मानता हूं।वे ऐसे गद्य के लेखक हैं जो अपने कौशल से जिस किसी विषय को उठाते है उसमें आकर्षण और पठनीयता के लिए भाषा में व्यंग्य का छोंक प्रस्तुत करने का अद्भुत सामर्थ्य रखते हैं। किसी व्यंग्य उपन्यास में अंत तक पाठकों को बांधना बड़ा कठिन है किंतु वे भाषा बरतने का हुनर जानते हैं, इसलिए निरंतर घटनाक्रम में कौतूहल को बनाए रख कर रचना में अंत तक निरंतर बनाए रखते हैं।यहां यह भी स्पष्ट करना उचित होगा कि इस कृति के विषय में मैंने बहुत पहले उनकी एक फेसबुक पोस्ट पढ़ी थी जिसे मैं यहां साझा करता हूं, 18 अगस्त, 2016 की है-
“पिछले डेढ़ वर्ष से चौथा व्यंग्य उपन्यास लिख रहा था कवि सम्मेलनों पर।आदि से अंत तक व्यंग्य मगर पूरा होने पर भी तय नहीं कर पा रहा था शीर्षक क्या हो। यह चिंता तब से थी जब मैंने इस उपन्यास का छोक डाला था। हमारे यहां शुरू करने को छोक डालना कहा जाता है।आज जब इंस्टेंट व्यंग्य के सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार आलोक पुराणिक जी से फ़ोन पर बात हुई तो चुटकियों में समाधान हो गया।तपाक से उन्होंने नाम सुझाया- ‘लिफ़ाफ़े में कविता’। पिछली कई रातें सोचते सोचते बीत गयीं बल्कि एक साल से ख़ाली हाथ था।बहुत बहुत धन्यवाद आलोक पुराणिक जी।आप भी इंतज़ार करिये अगले वर्ष का जब लिफ़ाफ़े में कविता शीर्षक से व्यंग्य उपन्यास आपके हाथ में होगा।” संयोग ऐसा बना कि यह व्यंग्य उपन्यास वर्ष 2021 में हाथ में आया।
यहां उनके धैर्य और गंभीरता के साथ ईमानदारी को भी देखा जा सकता है। यह उपन्यास व्यंग्य उपन्यास परंपरा में एक नवीन हस्तक्षेप है। लेखक का यह कौशल है कि उसने एक विषय में उसके आस पास के अनेक विषयों को इसमें समाहित करने का प्रयास किया है। उपन्यास का आरंभ एक युवा कवि की पारिवारिक स्थितियों को वर्णित करते हुए होता है जिसमें अंत तक पूरा घर-परिवार-समाज, प्रांत और देश शामिल हो जाता है। युवा कवि परसादी लाल के माध्यम से न केवल कवि सम्मेलनों का सच यहां उजागर हुआ है वरन साथी कवियों के साथ-साथ दफ्तरों, नेताओं, पार्टियों, परिवारों आदि का भी सच प्रमुखता से सामने रखा गया है। उपन्यास हमें बताता है कि स्वार्थी और चापलूस लोग किस प्रकार समय देखकर अपना रंग बदलते हैं। शराब और शबाब जैसे मुद्दों को भी रोचकता के साथ वर्णित करते हुए अरविंद तिवारी ऐसे लेखक के रूप में सामने आते हैं जो किसी को भी बख्शना नहीं जानते हैं। सार रूप में कहें तो इस व्यंग्य उपन्यास में प्रमुख युक्तियां सफलता से प्रयुक्त हुई है। पहली युक्ति- मुहावरों का सृजनात्मक प्रयोग। तिवारी जी के समग्र लेखन में हमें जिस व्यंजना के दर्शन होते हैं वह यहां भी बहुत सादगी के साथ उछाल पर है- “विरोधियों की छाती छोड़कर सांपों ने पन्नाराम की छाती का रूख किया।” जैसे अनेक वाक्य इसके साक्ष्य में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। दूसरी बात किसी घटना और संदर्भ को वे वर्तमान राजनीति अथवा समाजिक घटनाक्रम से जोड़ते हुए जगह जगह पंच प्रस्तुत करते हैं।
“परसादी लाल को लेकर की गई पंडितों की भविष्यवाणी भारत सरकार के ‘गरीबी हटाओ’ कार्यक्रम की तरह फ्लॉप हो चुकी थी।”
"अधिकांश कवयित्रियां मंच के कवि को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करती हैं। बाद में कई कवयित्रियां सीढ़ी को लात मारकर नीचे गिरा देती हैं।"
कवियों की शराबनोशी पर पंच देखें,"सूर्यवंशी उन्हें कहा जाता है जो दिन में पीते हैं।रात में पीने वाले चंद्रवंशी कहे जाते हैं।जो कवि दिन और रात की परवाह किए बिना पीते हैं,वे वर्णसंकर कहे जाते हैं।"
"जब कवि सम्मेलनों का टोटा पड़ जाता है तब मंचीय कवि अपने काव्य संग्रह छपवाने लगता है।"
"घर में जब पैसा आता है तो विचारधाराएं बदल जाती हैं।"
कहना होगा कि भाषा की सरलता, सादगी किन्तु अपनी पूरी कसावट के साथ, इक्कीस अध्यायों में रचित यह उपन्यास स्वयं में "इक्कीस" यानी श्रेष्ठ व्यंग्य उपन्यास है।
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पुस्तक का नाम : लिफाफे में कविता (व्यंग्य उपन्यास) ; लेखक : अरविंद तिवारी
विधा – उपन्यास ; संस्करण – 2021 ; पृष्ठ संख्या – 192 ; मूल्य – 400/- रुपए
प्रकाशक – प्रतिभा प्रतिष्ठान, 694- बी, चावड़ी बाजार, नई दिल्ली 110006
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डॉ. नीरज दइया
अरुण अर्णव खरे
संतुलित शब्दों में प्रभावी व्यंग्य
Monday, 25 August 2025
शशिकांत सिंह 'शशि'
1. समरथ को नहिं दोष (व्यंग्य संग्रह)- 2001
2. ऊधो! दिन चुनाव के आए (व्यंग्य काव्य )- 2005
3. बटन दबाओ पार्थ (व्यंग्य संकलन)- 2013
4. सागर मंथन चालू है - (व्यंग्य संकलन)-2016
5. प्रजातंत्र के प्रेत - (व्यंग्य उपन्यास)-2017
6. दीमक - (व्यंग्य उपन्यास)-2017
7. जोकर जिंदाबाद (व्यंग्य संकलन) 2018
8. गौर तलब व्यंग्य- ( व्यंग्य संकलन) 2018
9. व्यंग्य शतक (व्यंग्य संकलन) 2019
10. मंडी में ईमान- (व्यंग्य संकलन) 2022
11. सुखना (व्यंग्य उपन्यास)- 2023
अनूप मणि त्रिपाठी
व्यंग्य विधा के सर्वाधिक सशक्त हस्ताक्षर
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दरअसल इन रचनाओं की शैलीगत व्याप्ति इतनी अधिक है कि इन्हें केवल व्यंग्य के खाँचे में रखना इनकी मारक क्षमता को कम करके आँकना होगा। यह कोई और विधा है जिसकी तिलमिलाहट अन्दर तक कँपकँपी पैदा कर देती है और जिसे उपयुक्त नाम दिया जाना अभी बाकी है। हाँ, जब तक इसका उपयुक्त नामकरण न हो जाए तब तक व्यंग्य से काम चलाना पड़ेगा। इन रचनाओं से गुजरने के बाद मेरा मानना है कि अनूप मणि त्रिपाठी आज की मारक व्यंग्य विधा के सर्वाधिक सशक्त हस्ताक्षर हैं।
- शिवमूर्ति
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1. शोरूम में जननायक
2. नया राजा नये किस्से
3. साँपों की सभा
4. अस मानुस की जात
Saturday, 23 August 2025
बेहतरीन व्यंग्यकार और राजस्थानी के परसाई : बुलाकी शर्मा/ डॉ. नीरज दइया
‘बजरंग बली की डायरी’ व्यंग्य के माध्यम से चर्चा में आए बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी बुलाकी शर्मा (जन्म 1957, बीकानेर) की व्यंग्य विधा में सक्रियता का ही परिणाम है कि हिंदी और राजस्थानी भाषा में अब तक उनके अनेक संग्रह प्रकाशित हुए हैं:
* कवि, कविता अर घरआळी (राजस्थानी), 1987
* दुर्घटना के इर्द-गिर्द, 1997
* इज्जत में इजाफो (राजस्थानी), 2000
* रफूगीरी का मौसम, 2008
* चेखव की बंदूक, 2015
* आप तो बस आप ही हैं, 2017
* टिकाऊ सीढ़ियां, उठाऊ सीढ़ियां, 2019
* बेहतरीन व्यंग्य, 2019
* पांचवां कबीर, 2020
* आपां महान (राजस्थानी), 2020
* तैरूंडै में किताब (राजस्थानी), 2023
* विकळांग श्रद्धा रो दौर (हरिशंकर परसाई के व्यंग्य संग्रह का राजस्थानी अनुवाद), 2023
* बुलाकी शर्मा : चयनित व्यंग्य रचनाएं, 2023
बुलाकी शर्मा हमारे समय के मौन साधक हैं। वे अपने मित्रों के विषय में बहुत और अपने विषय में बहुत कम कहते-बतियाते हैं। चुटीली व्यंग्य-मुद्रा वाले बुलाकी जी के बारे में माना जाता है कि उनके व्यंग्य एक गहरी सामाजिक करुणा-दृष्टि से पोषित हैं। वरिष्ठ कथा-शिल्पी कीर्तिशेष यादवेंद्र शर्मा 'चन्द्र' का कहना था- 'व्यंग्य विधा में बुलाकी शर्मा की विशिष्ट पहचान है। आम आदमी की स्थितियाँ, उसके सुख-दुख, उसकी लाचारी एवं उसका संघर्ष उनकी व्यंग्य रचनाओं में मार्मिकता से उद्घाटित हुआ है।'
यहाँ यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि उन्होंने अनेक समाचार-पत्रों में लंबे समय तक व्यंग्य स्तंभ लेखन किया है और कर रहे हैं। व्यंग्य विधा में उन्होंने विपुल मात्रा में लेखन किया है। स्तंभों के लिए सैकड़ों की तादाद में लिखी गई सभी व्यंग्य रचनाओं को यदि वे पुस्तक रूप में लाते, तो अब तक उनके बीसियों व्यंग्य संग्रह आ चुके होते, किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया।
अपनी छपी व्यंग्य रचनाओं को वे एक सजग और निरपेक्ष समालोचक के रूप में पुनः जांचते-परखते हैं, आवश्यक संशोधन करते हैं, छंटनी करते हैं, फिर संग्रह में शामिल करते हैं। केवल चयनित व्यंग्य ही पाठकों तक पुस्तकाकार पहुँचें- यह उनकी कोशिश रहती है। स्व-चयन का यह जरूरी घटक हम व्यंग्यकारों में प्रायः कम ही होता है। बहुत से व्यंग्य तत्कालीन स्थितियों, समय की आवश्यकता को ध्यान में रखकर लिखे जाते हैं अथवा अखबार और खास अवसर की जरूरत को मद्देनज़र रखते हुए लिखे जाते हैं।
एक सजग व्यंग्यकार को अपनी यात्रा के विकासक्रम में यह चिंतन करना जरूरी है कि वह समय के साथ व्यंग्य विधा को क्या विशिष्ट दे रहा है। अनेक घिसे-पिटे और बार-बार दोहराए जाने वाले विषयों पर निरंतर लिखा तो जा सकता है, किंतु वे व्यंग्य विधा अथवा स्वयं व्यंग्यकार के विकास के ग्राफ को कहाँ ले जाते हैं- इसका आकलन भी जरूरी है। जाहिर है, इन सबसे बचना कठिन है, किंतु इसे ध्यान में रखकर आगे बढ़ने वाले व्यंग्यकारों में बुलाकी शर्मा का नाम प्रमुख है।
संग्रहों के संख्यात्मक आँकड़ों की बजाय सदा गुणवत्ता में विश्वास करने वाले बुलाकी जी की सृजन-यात्रा को केंद्र में रखकर अपनी पुस्तक 'बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार' में मैंने हिंदी और राजस्थानी व्यंग्य विधा में उनके विशिष्ट और उल्लेखनीय अवदान को रेखांकित किया है।
पहले उनके हिंदी व्यंग्यकार पर चर्चा करेंगे, बाद में राजस्थानी व्यंग्यकार पर।
उनके व्यंग्य की प्रहारक क्षमता गजब की है क्योंकि वे 'मैं' यानी स्वयं पर प्रहार करते हैं। सुखलाल जी, कवि धाकड़ जी, अचूकानंद जी जैसे स्वयं के निर्मित चरित्रों से मात खाते 'मैं' में पाठकों को अपना 'मैं' महसूस होने लगता है। 'मैं' की मासूमियत और भोलापन, और दूसरे पात्रों के उससे प्रश्न-प्रतिप्रश्न, साथ ही व्यंग्य में कथा-रस का आस्वाद—ये ऐसे घटक हैं जो उनकी पठनीयता को और अधिक पठनीय बनाते हैं। चर्चित व्यंग्यकार सुभाष चंदर भी उनकी व्यंग्य कथाओं की सराहना करते हुए कहते हैं, ‘बुलाकी शर्मा हिंदी व्यंग्य का एक महत्त्वपूर्ण नाम है। उन्होंने व्यंग्य के सभी रूपों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाई है, पर उनके रचनाकार का सर्वश्रेष्ठ रूप व्यंग्य कथा में देखने को मिलता है। वे प्रसंग वक्रता का बेहतरीन निर्वाह करते हैं।’
बुलाकी शर्मा के भाषा पक्ष की बात करें तो छोटे-छोटे वाक्यों और संवादों के माध्यम से वे मार्मिकता और चुटीलेपन के साथ विविधता को साधते हुए हमें हमारे आस-पास की अनेक समस्याओं के भीतर-बाहर ले जाते हुए विद्रूपताओं को उजागर करते हैं। यह सही भी है कि उनकी व्यंग्य यात्रा में यह भी रेखांकित किए जाने योग्य है कि वे बार-बार व्यंग्य की धार से स्वयं को भी लहूलुहान करने से नहीं चूकते। जहाँ कहीं अवसर मिलता है, वे स्वयं व्यंग्य में घायल सैनिक की भांति हमारे सामने तड़पते हुए हमें स्वचिंतन के लिए विवश करते हैं।
'चेखव की बंदूक', 'रफूगीरी का मौसम', 'पांचवां कबीर' समेत उनके व्यंग्य संग्रहों में साहित्य और समाज के दोहरे चरित्रों को खोलते हुए व्यंग्य-बाणों से भरपूर प्रहार किया गया है। साहित्य और साहित्यकारों पर केंद्रित व्यंग्य 'पांचवां कबीर' में साहित्यिक नामों की फतवेबाजी से हो रही पतनशीलता के साथ दोहरे चरित्रों को केंद्र में रखते हुए निशाना साधा गया है। एक अंश दृष्टव्य है-
'अगले सप्ताह ही तुम्हारी पुस्तक पर मैं स्वयं चर्चा रखवाता हूँ। अपने खर्चे पर। कबीर तो बेचारे राष्ट्रीय कवि हैं। तुम्हारी प्रतिभा अंतरराष्ट्रीय है। इसलिए मैं तुम्हें शहर का इकलौता कवि कीट्स अवतरित करके अंतरराष्ट्रीय कवि स्थापित कर दूँगा। अब तो ग़ुस्सा छोड़ो।'
मंचस्थ 'मठाधीशों' द्वारा किसी को कबीर, किसी को मुक्तिबोध, किसी को बाबा नागार्जुन, किसी को महादेवी, किसी को परसाई-शरद जोशी आदि बताकर साहित्यिक वातावरण बिगाड़ने वालों पर इसमें तीक्ष्ण प्रहार किया गया है। वरिष्ठ व्यंग्यकार सुरेश कांत लिखते हैं- 'बुलाकी शर्मा ने अपने व्यंग्य संग्रह चेखव की बंदूक में राजनीतिक छद्मों, सामाजिक प्रपंचों, आर्थिक विसंगतियों, दफ्तरी दावपेंचों, वैचारिक दो-मुँहपने आदि विभिन्न पहलुओं को अपनी व्यंग्य की जद में लिया है, किंतु जहाँ उनका मन सर्वाधिक समाया है, वह है भाषा और साहित्य जगत की विसंगतियों का क्षेत्र।'
व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा स्थितियों का चित्रण करते हुए बहुत कुछ अनकहा भी अपने पाठकों तक पहुँचाने में जैसे सिद्धहस्त हैं। साहित्य और भाषा का क्षेत्र उनका अपना क्षेत्र है। 'व्यंग्य-यात्रा' के संपादक प्रेम जनमेजय ने लिखा है- 'बुलाकी शर्मा में आत्म-व्यंग्य की प्रतिभा है। उनके पास व्यंग्य-दृष्टि और व्यंग्य भाषा का मुहावरा है।'
बुलाकी शर्मा के आरंभिक व्यंग्य और उसके क्रमिक विकास का आकलन करते हुए हम देख सकते हैं कि उन्होंने अपनी अलहदा शैली का विकास करते हुए व्यंग्य को बेहद बारीक और मारक बनाने की दिशा में बहुत से रास्तों को पार कर लिया है। वे अंतर्मन में अंधकार और द्वंद्व को भी उजागर करते हुए 'आप तो बस आप ही हैं !' जैसी व्यंग्य रचना में व्यवहार में वाक् पटुता और उधार लेने वाले चालबाजों पर बेहद उम्दा व्यंग्य करते हैं।
वरिष्ठ व्यंग्यकार सुशील सिद्धार्थ को उनका यह बतरस अंदाज़ प्रिय था- 'बुलाकी शर्मा छोटे-छोटे अनुभवों, सहज भाषा (मैं इसे बतरस कहूँगा) और मनोरंजन रचना पद्धति से अपने व्यंग्य को विशिष्ट बना देते हैं। वे पाठकों के लेखक हैं। संप्रेषण इतना सधा हुआ है कि अन्य लेखक उनसे सीख सकते हैं।'
सधे हुए संप्रेषण के आगाज़ की बात मार्फत बुलाकी शर्मा करें तो उन्होंने वर्ष 1978 में मुक्त्ता पत्रिका में ‘बजरंगबली की डायरी’ से इस विधा में विधिवत प्रवेश किया। बाद में वे साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, कथादेश, आजकल, व्यंग्य यात्रा, अट्टहास, अमर उजाला, जागरण, ट्रिब्यून, सन्मार्ग, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका समेत अनेक पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य समेत विविध विधाओं में प्रकाशित होते चले गए और यह सिलसिला निरंतर विस्तार पा रहा है।
बुलाकी शर्मा ने छद्म नामों से भी खूब लिखा है। दैनिक भास्कर बीकानेर में ‘अफलातून’ नाम से वे लगभग सात–आठ वर्ष तक साप्ताहिक व्यंग्य स्तंभ 'उलटबांसी' लिखते रहे। फिर कुछ वर्षों के अंतराल पश्चात लगभग तीन वर्ष तक अपने वास्तविक नाम से भी लिखा। वहीं बीकानेर के 'विनायक' समाचार पत्र में साप्ताहिक व्यंग्य स्तंभ 'तिर्यक की तीसरी आँख' कुछ वर्ष छद्म नाम से और सन 2017 में राजकीय सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति पश्चात अपने वास्तविक नाम से लिखा।
प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरीश नवल का मानना है- 'बुलाकी शर्मा का लेखन बहुत आश्वस्त करता है। जैसा स्तरीय लेखन व्यंग्यकार का होना चाहिए, उनका वैसा ही है। उपहास, कटाक्ष, विनोद, हास्य को वे व्यंजना के प्रभाव से बढ़ाने के लिए भी उपयोग करते हैं।'
यदि हम अन्य व्यंग्यकारों और बुलाकी शर्मा के मध्य तात्त्विक अंतर खोजें तो पाएँगे कि उनके व्यंग्य की व्यापकता प्रवृत्तिगत केंद्रीय बिंदु को थामते हुए सधी हुई भाषा में आगे बढ़ा ले जाने में है। उन्होंने लोकभाषा और जनभाषा के महत्त्व को अंगीकार करते हुए व्यंग्य विधा में शिल्प और भाषा पर विशेष ध्यान दिया है। कवि-व्यंग्यकार लालित्य ललित का कहना है- 'व्यंग्य के सुपरिचित हस्ताक्षर बुलाकी शर्मा के पास भाषा का ऐसा शिल्प है जो उन्हें अपने समकालीनों से विशिष्ट बनाता है।'
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के वे अध्येता रहे हैं, इसलिए उन्हें परंपरा और आधुनिकता का बोध है। किसी भी व्यंग्यकार के लिए यह जरूरी होता है कि वह अपनी परंपरा को शक्ति के रूप में स्वीकार करते हुए और निरंतर आधुनिकता की दिशा में अग्रसर रहते हुए समकालीन साहित्य से सतत परिचय बनाए रखे।
यहाँ उनके व्यंग्य संग्रह 'पांचवां कबीर' में संकलित व्यंग्य ‘पिता की फ्रेंड रिक्वेस्ट’ की चर्चा करें तो पाएँगे कि व्यंग्य में आधुनिक विषय के साथ बहुत छोटी-सी और छद्म-सी चिंता- पिता और पुत्र के संबंधों के बीच उजागर करते हुए-व्यंग्यकार ने रोचकता के साथ हमारी यांत्रिकता और आधुनिक समय की त्रासदी पर प्रकाश डाला है। जिस ढंग से फेसबुक मित्रता आग्रह के एक छोटे से प्रसंग को कथात्मक रूप से संजोया गया है, वह अपने आप में असाधारण व्यंग्य इस लिहाज से बनता है कि आज उत्तर-आधुनिकता के समय में पीढ़ियों का अंतराल, सभ्यता और संस्कार आदि सभी कुछ इस व्यंग्य में पाठक के सामने केंद्र में आकर खड़े हो जाते हैं।
व्यंग्यकार का सबसे बड़ा कौशल यही होता है कि वह अपना निशाना साधते हुए ऐसे परखचे उड़ाए कि जब तक पाठक उस अहसास और अनुभूति तक पहुँचे, उसे यह भान हो जाए कि बड़ा धमाका हो चुका है। उसे कुछ करना है- यह ‘कुछ करने’ का अहसास कराना ही व्यंग्य की सफलता है। व्यंग्यकार शर्मा के लिए व्यंग्य हमारे समय की विद्रूपताओं को रेखांकित करते हुए मानव मन में बदलावों के बीज को अंकुरित करने का एक माध्यम है।
व्यंग्यकार के रूप में बुलाकी शर्मा ने अनेक सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किए हैं। राजनीति हो अथवा समाज-व्यवस्था, उन्हें जहाँ कहीं गड़बड़-घोटाला नज़र आया, वे अपनी बात कहने से नहीं चूके हैं। उनके व्यंग्य में उनके अनुभवों का आकर्षण भाषा और शिल्प में देखा जा सकता है। वे अपने पाठ में कब अभिधा से लक्षणा और व्यंजना शब्द-शक्ति का कमाल दिखाने लगते हैं, पता ही नहीं चलता। और जब पता चलता है तब तक हम उसमें इतने आगे निकल आए होते हैं कि पिछली सारी बातें किसी कथा-स्मृति जैसी हमें नए अर्थों और अभिप्रायों की तरफ संकेत करती हुई नज़र आती हैं। ऐसे में विसंगतियों के प्रति संवेदनशीलता और करुणा से हम द्रवित हो जाते हैं।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि वे किसी भी विषय के प्रति न तो अत्यधिक उत्साहित होते हैं, न ही एकदम निराश। उनके लिए व्यंग्य का विषय उनके स्वयं के व्यवहार जैसा कुशल और मंजा हुआ है और उसके निर्वहन में कोई कमी नज़र नहीं आती। वे अपने आस-पास की कमियों को भी बहुत बार कबीर की उलटबांसी की भांति इस तरह बताते हैं कि पाठक सोचने पर विवश हो जाता है।
उल्लेखनीय है कि व्यंग्यकार के साथ ही वे कथाकार भी हैं और हिंदी और राजस्थानी में उनके दो–दो कहानी संग्रह आ चुके हैं। उनका कथाकार, उनके व्यंग्यकार से प्रभावी व्यंग्य कथाएँ लिखवा लेता है। इसी क्रम में प्रसंगवश मैं उल्लेख करना चाहूंगा उनकी प्रसिद्ध व्यंग्य-कथा 'प्रेम प्रकरण पत्रावली' का। इसका शिल्प अपने आप में बेजोड़ है। यह एक प्रेमी द्वारा अपनी प्रेमिका को लिखे प्रेम पत्रों की पत्रावली है। पत्र शैली का यह व्यंग्य उन्होंने अपने कहानी संग्रह 'कथा अनुकम्पा' तथा व्यंग्य-संग्रह 'बेहतरीन व्यंग्य' - दोनों में शामिल किया है, जिसके संबंध में पद्मश्री ज्ञान चतुर्वेदी कहते हैं- 'प्रेम प्रकरण पत्रावली में कैसी कुशलता से ऑफिस नोट्स की भाषा के तेवरों से व्यंग्य पैदा किया गया है, वह पढ़ने-गुनने की चीज है।'
इसी तरह उन्होंने 'कथा अनुकम्पा', 'स्वप्न कथा' आदि कुछ रचनाओं को कहानी और व्यंग्य- दोनों विधाओं के संग्रहों में शामिल किया है। वैसे देखा जाए तो व्यंग्य और कहानी दोनों विधाओं के अपने-अपने अनुशासन हैं, किंतु बुलाकी शर्मा इन दोनों विधाओं के मध्य के सहयात्री हैं। वे अक्सर कहानी में व्यंग्य लिखते हैं और व्यंग्य में कहानी। कहना चाहिए कि कहानी उनके अनुभव में है और व्यंग्य उनके विचार में। उनका यह शैल्पिक बदलाव अथवा पटरियों को बदलने का उपक्रम कहीं किसी भी स्तर पर पाठक को अखरता नहीं, वरन् उसे लुभाता है। बुलाकी शर्मा का यह शैल्पिक कौशल उन्हें समकालीन हिंदी व्यंग्य साहित्य में विशिष्ट पहचान और प्रतिष्ठा दिलाता रहा है।
राजस्थानी के परसाई
अब राजस्थानी व्यंग्य साहित्य में बुलाकी शर्मा के योगदान पर चर्चा करना मुझे जरूरी लग रहा है। उनके ‘साबुत व्यंग्यकार’ को हम तब ही जान–समझ सकेंगे, जब उनके हिंदी व्यंग्य के साथ राजस्थानी व्यंग्य से रूबरू होंगे। केवल हिंदी या केवल राजस्थानी व्यंग्य में उनके अवदान की बात करना, उनके व्यंग्यकार के साथ ‘अन्याय’ करना ही माना जाएगा- और ऐसी गलती करने की धृष्टता मैं कतई नहीं करूंगा।
राजस्थानी के साथ हिंदी के प्रख्यात कथाकार विजयदान देथा ‘बिज्जी’ का साहित्यकारों के बीच यह कहना था कि बुलाकी शर्मा राजस्थानी के परसाई हैं। इसका कोई लिखित साक्ष्य नहीं है, किंतु साहित्यिक मित्रों के बीच यह कथन चर्चा में रहा है। बिज्जी ने बुलाकी जी के बारे में यह बात तब कही थी, जब तक उनके मात्र दो राजस्थानी व्यंग्य संग्रह- 'कवि, कविता अर घरआळी' (1987) और 'इज्जत में इजाफो' (2000), यानी कुल 32 व्यंग्य- पुस्तकाकार प्रकाशित हुए थे। 'इज्जत में इजाफो' व्यंग्य संग्रह साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली के राजस्थानी पुरस्कार के लिए विचाराधीन सूची में तब जरूर शामिल था।
क्या मात्र दो व्यंग्य संग्रहों के आधार पर बिज्जी द्वारा बुलाकी शर्मा को राजस्थानी भाषा का परसाई कहना उचित कहा जा सकता है? माना कि पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी बहुत-सी व्यंग्य रचनाएँ संग्रह के रूप में नहीं आ सकी हों, अथवा उनके अनेक अप्रकाशित राजस्थानी व्यंग्य रहे हों, फिर भी क्या यह कथन अतिशयोक्ति जैसा नहीं लगता?
कीर्तिशेष कथाकार देथा जी का यह कथन मुझे कभी अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं लगा, क्योंकि राजस्थानी में व्यंग्य को विधा के रूप में स्थापित करने वालों में बुलाकी शर्मा का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। राजस्थानी भाषा का उनका पहला व्यंग्य संग्रह 'कवि, कविता अर घरआळी' राजस्थानी भाषा का पहला व्यंग्य संग्रह भी है। उनके इस संग्रह के प्रकाशन के बाद ही अन्य राजस्थानी व्यंग्यकारों के संग्रह आने आरंभ हुए। देथा जी ने उन्हें ‘राजस्थानी का परसाई’ उनके संख्यात्मक अवदान को लेकर नहीं, बल्कि व्यंग्य क्षेत्र में उनकी पूरी निष्ठा और समर्पण से की गई सतत साधना को देखते हुए कहा होगा।
इन दो व्यंग्य संग्रहों के बाद उनके दो और व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं- 'आपां महान' और 'तैरूंडै में किताब'। यह भी सुखद है कि राजस्थानी के वे ऐसे पहले व्यंग्यकार हैं जिनके चार व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हैं। यहाँ मैं अपने हवाले से पुख्तगी से यह कह रहा हूँ कि बुलाकी शर्मा राजस्थानी व्यंग्य विधा के परसाई हैं।
बुलाकी शर्मा ने अपने व्यंग्य संग्रह 'इज्जत में इजाफो' के समर्पण में लिखा है-
'राजस्थानी गद्य में व्यंग्य विधा नै ठावी ठौड़ दिरावणिया सांवर दइया री ओळूं नै।'
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सांवर दइया और बुलाकी शर्मा ने व्यंग्य विधा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है, किंतु दइया जी के असामयिक निधन के कारण उनकी व्यंग्य-यात्रा 'इक्यावन व्यंग्य' नामक पुस्तक के साथ पूर्ण हो गई, जो उनके देहावसान पश्चात प्रकाशित हुई। राजस्थानी व्यंग्य विधा को बुलाकी शर्मा से बहुत अपेक्षाएँ और उम्मीदें इसलिए भी हैं कि वे हिंदी के भी प्रमुख व्यंग्यकार हैं, अतः निश्चय ही उनकी राजस्थानी व्यंग्य-यात्रा बहुत दूर तक जाने वाली है।
जिस भाँति परसाई जी ने हिंदी में व्यंग्य को विधा के रूप में स्थापित किया, वैसे ही राजस्थानी में व्यंग्य को विधा रूप में प्रतिष्ठित करने वालों में बुलाकी शर्मा का नाम अग्रिम पंक्ति में लिया जाता है। बुलाकी शर्मा और राजस्थानी के अन्य व्यंग्यकारों में खास फर्क यह है कि वे व्यंग्य की व्यापक प्रवृत्तियों और भाषा से बखूबी परिचित हैं, क्योंकि उन्होंने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का अध्ययन, मनन और चिंतन किया है। वे व्यंग्य-आलेख अथवा व्यंग्य-कहानी में सतत नवीन प्रयोग करने की कोशिश करते रहे हैं और भाषा तथा शिल्प के स्तर पर कई सफल प्रयोग भी किए हैं।
उन्होंने परंपरा को शक्ति के रूप में स्वीकार करते हुए आधुनिकता की दिशा को अपनाया है। स्थानीयता और लौकिक सत्यों के साथ वे स्थिति के अनुसार कभी पाठक के पक्ष में और कभी प्रतिपक्ष में खड़े होने से भी नहीं हिचकते। उन्होंने अपनी स्थिति कभी भी एक जैसी अथवा पूर्व निर्धारित नहीं रखी। उनमें जीवन के प्रति आकर्षण का भाव है। वे बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक के जीवन में विनोद और विसंगतियों को ढूँढ़ लेने में सक्षम हैं। ऐसी अनेक विशेषताओं के कारण उन्हें राजस्थानी व्यंग्य का परसाई कहा जा सकता है।
वे हिंदी में भी लिखते हैं, किंतु हिंदी के संदर्भ में यह उक्ति विचारणीय नहीं है, क्योंकि हिंदी व्यंग्य का क्षेत्र बहुत व्यापक है और वहाँ परसाई सदैव के लिए उपस्थित हैं। हिंदी में बुलाकी शर्मा को बस बुलाकी शर्मा ही होना है- और वे हिंदी व्यंग्य के प्रमुख हस्ताक्षर हैं।
बुलाकी शर्मा प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने वाले व्यंग्यकार हैं। उनके पहले राजस्थानी व्यंग्य संग्रह 'कवि, कविता अर घरआळी' की रचनाओं में उनका यह तेवर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। शीर्षक रचना 'कवि, कविता अर घरआळी' में कथात्मकता भी है और संवादों का आनंद भी। यहाँ घर-समाज में कविता के अवमूल्यन की स्थितियाँ और विरोधाभास की व्यंजना प्रमुखता से उभरती है। साहित्य, विशेषकर कविता को लेकर कवियों के जीवन पर करारा प्रहार किया गया है। बुलाकी शर्मा इस सत्य को स्थापित करने में सफल हुए हैं कि कोई व्यक्ति हर समय कवि नहीं हो सकता अथवा उसे हर समय कवि नहीं होना चाहिए।
कवियों द्वारा श्रोताओं पर किए जाते ‘अत्याचारों’ को लेकर उन्होंने हिंदी में भी कई व्यंग्य लिखे हैं। वे हिंदी और राजस्थानी- दोनों भाषाओं में समान रूप से व्यंग्य लिखते रहे हैं, इसलिए उनकी कुछ रचनाएँ राजस्थानी से हिंदी और हिंदी से राजस्थानी में मौलिक रचनाओं के रूप में प्रस्तुत हुई हैं। जैसे इसी संग्रह की रचना 'संकट टळग्यो' को 'दुर्घटना के इर्द-गिर्द' नाम से दस वर्ष बाद प्रकाशित हिंदी संग्रह में संकलित किया गया है। इसी तरह इस संग्रह में शामिल व्यंग्य 'ज्योतिष रो चक्कर', हिंदी में 'अंकज्योतिष का चक्कर' के रूप में प्रस्तुत हुआ है।
इसी विषय को लेकर उनके राजस्थानी व्यंग्य संग्रह 'इज्जत में इजाफो' का शीर्षक व्यंग्य अखबार के राशिफल का रहस्य उद्घाटित करता है। वे अंधविश्वासों पर प्रहार करते हैं और उसे कथात्मक उदाहरणों द्वारा पोषित करते हैं।
बुलाकी शर्मा अपने निजी जीवन में सरकारी नौकरी के दौरान कई कार्यालयों से जुड़े रहे और उन्होंने अनेक व्यंग्य रचनाओं में दफ्तर के चित्र प्रस्तुत किए हैं। 'दफ्तर' नामक व्यंग्य में नए अफसर को काबू में करने की रोचक कहानी है, तो 'दफ्तर-गाथा' में चार लघुकथाओं के माध्यम से कार्यालय की अनियमितताओं की ओर संकेत किया गया है। उनके व्यंग्य में छोटी-छोटी घटनाओं और प्रसंगों के माध्यम से समय, समाज और देश अपने बदलते रूप में हमारे सामने आते हैं। वे बदलते समाज को शब्दों में बाँधते हुए अनेक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संकेत करते हैं।
'नेतागिरी रो महातम' में बदलती राजनीति और राजनीति से पोषित हो रहे छोटे-बड़े नेताओं को लक्षित किया गया है, वहीं 'मिलावटिया जिंदाबाद' में, जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है, मिलावट पर करारा व्यंग्य किया गया है। यहाँ उन्होंने जिस पाचक घी को लक्षित किया है, उसी की तरह हिंदी में लिखे गए एक व्यंग्य में उन्होंने पाचक दूध के माध्यम से मिलावट और बदलते समय पर तीखा प्रहार किया है।
बुलाकी शर्मा को आरंभिक प्रसिद्धि 1978 में प्रकाशित 'बजरंगबली की डायरी' से मिली और इसका परिवर्तित-परिवर्धित स्वरूप उनके व्यंग्य संग्रह 'इज्जत में इजाफो' (2000) में भी देखा जा सकता है। कहानी में व्यंग्य और व्यंग्य में कहानी लिखने का कौशल वे हिंदी के साथ-साथ राजस्थानी में भी बखूबी निभाते हैं। इसका अनुपम उदाहरण उनका व्यंग्य 'पूंगी' है। आरंभ में यह व्यंग्य निबंध के रूप में शुरू होता है-
'साब अर सांप री रासी एक है, बियां ई दोनां री तासीर ई एक सरीखी हुवै।'
किन्तु शीघ्र ही यह साहब और उनके चापलूस कर्मचारी की कहानी में ढल जाता है। यह बहुचर्चित व्यंग्य-कथा लंबे समय से विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल है, और साहित्य अकादेमी की पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' में इसके हिंदी अनुवाद के प्रकाशन पर इसे पाठकों की भरपूर सराहना मिली।
कथाकार मालचंद तिवाड़ी ने इस पर लिखा है- 'पूंगी अपने समग्र प्रभाव में एक बेधक और मारक व्यंग्य होते हुए भी अपनी रोचकता और आख्यानात्मकता के बल पर कहानी के शिल्प में बुलाकी शर्मा की गहरी पकड़ का साक्ष्य है। बुलाकी शर्मा की राजस्थानी रचनाएँ पढ़ते हुए अंतोन चेखव और हरिशंकर परसाई याद आते हैं, क्योंकि विडंबना (आयरनी) की पहचान और उसके रचाव का प्रत्यक्ष विकास वे छोटे-छोटे आख्यानों के जरिये प्रस्तुत करते हैं।'
'इज्जत में इजाफो' संग्रह में राजस्थानी भाषा, साहित्य और साहित्यकारों पर तीखे व्यंग्य हैं। बुलाकी शर्मा के लेखन-संसार में किसी को कोई माफी नहीं- वे स्वयं भी नहीं। 'थे चिंता करो' में राजस्थानी भाषा की मान्यता से जुड़े मसले को तटस्थ भाव से देखते हुए जहाँ आवश्यक समझा, वहाँ स्पष्ट आलोचना भी की गई है। यह समूचा चिंतन और चिंता व्यंग्य के स्तर पर उनकी अपनी मातृभाषा राजस्थानी और उसके साहित्य के प्रति प्रेम का प्रमाण है।
'सियाळो अर साहित्यकार', 'गुपतज्ञान', 'टाळवीं रचना भेजूं !', 'साहित्य सूं सरोकार' जैसे व्यंग्य लेखों में वे समकालीन लेखकीय प्रवृत्तियों की परतें जिस सटीक और कटाक्षपूर्ण भाषा में खोलते हैं, वह देखने योग्य है।
'सियाळो अर साहित्यकार' की यह पंक्ति गौरतलब है-
'अबकी तो थांरी लाऊ-झाऊ टक्कर में है। लागै बाजी मार लेसी।'
यहाँ पुस्तक का नाम 'लाऊ-झाऊ' और आगे 'पांगळी' जैसे शब्दों का चतुर प्रयोग करते हुए उन्होंने साहित्यिक प्रवृत्तियों की सांकेतिकता और आलोचना का जो समावेश किया है, वह बुलाकी शर्मा के भाषिक चमत्कार और व्यंग्यात्मक कौशल को दर्शाता है।
उनकी अन्य व्यंग्य रचनाओं में गुरु-टीचर, पुरातन-नवीन संस्कार, भक्ति-दर्शन-पुराण, और बुद्धिजीवियों का चिंतन भी केंद्र में रहा है। 'आपां महान' और 'तैरूंडे में किताब'- ये दोनों व्यंग्य संग्रह उनके प्रसिद्ध संग्रह 'इज्जत में इजाफो' के बीस वर्ष बाद प्रकाशित हुए। जैसा कि पहले उल्लेखित किया गया है, वे हिंदी के साथ-साथ राजस्थानी व्यंग्य स्तंभ भी वर्षों तक लिखते रहे हैं।
लगभग दो वर्षों से वे महाराष्ट्र, मुंबई के लोकप्रिय हिंदी दैनिक 'सामना' में साप्ताहिक राजस्थानी व्यंग्य स्तंभ 'रौबीलो राजस्थान' लिख रहे हैं, जिसे प्रवासी राजस्थानी पाठकों द्वारा खूब सराहा जा रहा है। किंतु बुलाकी शर्मा कभी भी पुस्तक प्रकाशन की जल्दबाजी में नहीं रहे। इन वर्षों में उनकी सृजनात्मक रेंज में जो विस्तार आया है, उसका प्रमाण इन दोनों राजस्थानी व्यंग्य संग्रहों से मिलता है।
'तैरूंडै में किताब' संग्रह में बुलाकी शर्मा के राजस्थानी व्यंग्य लेखन का श्रेष्ठ अवदान देखा जा सकता है। इसमें भयावह कोरोना काल में लिखे गए व्यंग्य भी शामिल हैं, जिनमें जीवन की त्रासदियों के बीच हास्य और व्यंग्य की स्थितियों को उभारने के अद्भुत जतन किए गए हैं। इसी प्रकार व्यंग्य के उत्थान के लिए साहित्य अकादेमी से प्रकाशित 'विकळांग श्रद्धा रो दौर' (हरिशंकर परसाई के व्यंग्य संग्रह का राजस्थानी अनुवाद) को एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में देखा जाना चाहिए। यह प्रसन्नता की बात है कि जिन्हें हम व्यंग्य का मानक मानते हैं, उनके व्यंग्य जब भारत की सभी भाषाओं में पहुँचेंगे तो मूल्यांकन के साथ-साथ परस्पर तुलना का मार्ग भी खुलेगा। राजस्थानी पाठकों तक परसाई को पहुँचाने की यह पहल इस अनुवाद के माध्यम से बुलाकी शर्मा ने ही की है।
निश्चित ही वे हिंदी के साथ-साथ राजस्थानी के भी विशिष्ट व्यंग्यकार हैं। वरिष्ठ कवि, संपादक और व्यंग्यकार नागराज शर्मा सच ही कहते हैं- 'बुलाकी शर्मा व्यंग्य विधा के महारथी, राजस्थानी के सारथी और मानव-मनोविज्ञान के पारखी हैं।'
प्रख्यात व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी के शब्दों के साथ मैं अपनी बात को विराम देता हूँ-
'बुलाकी शर्मा व्यंग्य के उन इने-गिने समकालीन हस्ताक्षरों में से हैं, जो चाहें तो भी बेहतरीन के अलावा कुछ लिख नहीं पाते।'
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व्यंग्य का बाप : हरिशंकर परसाई
बाप बड़ा विचित्र शब्द है क्योंकि यह आदरणीय होते हुए भी भाषा में उतेजना पैदा करता है। यह शब्द जिसके अभिप्राय में प्रयुक्त होता है वह जन्मदाता ही विधाता होता है। क्या कारण है कि बाप से ही बना शब्द बापू पूजनीक है। बाबू बड़ा प्यारा शब्द है और जब इसका अभिप्राय महात्मा गांधी समझा जाए तो कहना ही क्या...। पिता शब्द गरिमामय है।








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