‘बजरंग बली की डायरी’ व्यंग्य के माध्यम से चर्चा में आए बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी बुलाकी शर्मा (जन्म 1957, बीकानेर) की व्यंग्य विधा में सक्रियता का ही परिणाम है कि हिंदी और राजस्थानी भाषा में अब तक उनके अनेक संग्रह प्रकाशित हुए हैं:
* कवि, कविता अर घरआळी (राजस्थानी), 1987
* दुर्घटना के इर्द-गिर्द, 1997
* इज्जत में इजाफो (राजस्थानी), 2000
* रफूगीरी का मौसम, 2008
* चेखव की बंदूक, 2015
* आप तो बस आप ही हैं, 2017
* टिकाऊ सीढ़ियां, उठाऊ सीढ़ियां, 2019
* बेहतरीन व्यंग्य, 2019
* पांचवां कबीर, 2020
* आपां महान (राजस्थानी), 2020
* तैरूंडै में किताब (राजस्थानी), 2023
* विकळांग श्रद्धा रो दौर (हरिशंकर परसाई के व्यंग्य संग्रह का राजस्थानी अनुवाद), 2023
* बुलाकी शर्मा : चयनित व्यंग्य रचनाएं, 2023
बुलाकी शर्मा हमारे समय के मौन साधक हैं। वे अपने मित्रों के विषय में बहुत और अपने विषय में बहुत कम कहते-बतियाते हैं। चुटीली व्यंग्य-मुद्रा वाले बुलाकी जी के बारे में माना जाता है कि उनके व्यंग्य एक गहरी सामाजिक करुणा-दृष्टि से पोषित हैं। वरिष्ठ कथा-शिल्पी कीर्तिशेष यादवेंद्र शर्मा 'चन्द्र' का कहना था- 'व्यंग्य विधा में बुलाकी शर्मा की विशिष्ट पहचान है। आम आदमी की स्थितियाँ, उसके सुख-दुख, उसकी लाचारी एवं उसका संघर्ष उनकी व्यंग्य रचनाओं में मार्मिकता से उद्घाटित हुआ है।'
यहाँ यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि उन्होंने अनेक समाचार-पत्रों में लंबे समय तक व्यंग्य स्तंभ लेखन किया है और कर रहे हैं। व्यंग्य विधा में उन्होंने विपुल मात्रा में लेखन किया है। स्तंभों के लिए सैकड़ों की तादाद में लिखी गई सभी व्यंग्य रचनाओं को यदि वे पुस्तक रूप में लाते, तो अब तक उनके बीसियों व्यंग्य संग्रह आ चुके होते, किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया।
अपनी छपी व्यंग्य रचनाओं को वे एक सजग और निरपेक्ष समालोचक के रूप में पुनः जांचते-परखते हैं, आवश्यक संशोधन करते हैं, छंटनी करते हैं, फिर संग्रह में शामिल करते हैं। केवल चयनित व्यंग्य ही पाठकों तक पुस्तकाकार पहुँचें- यह उनकी कोशिश रहती है। स्व-चयन का यह जरूरी घटक हम व्यंग्यकारों में प्रायः कम ही होता है। बहुत से व्यंग्य तत्कालीन स्थितियों, समय की आवश्यकता को ध्यान में रखकर लिखे जाते हैं अथवा अखबार और खास अवसर की जरूरत को मद्देनज़र रखते हुए लिखे जाते हैं।
एक सजग व्यंग्यकार को अपनी यात्रा के विकासक्रम में यह चिंतन करना जरूरी है कि वह समय के साथ व्यंग्य विधा को क्या विशिष्ट दे रहा है। अनेक घिसे-पिटे और बार-बार दोहराए जाने वाले विषयों पर निरंतर लिखा तो जा सकता है, किंतु वे व्यंग्य विधा अथवा स्वयं व्यंग्यकार के विकास के ग्राफ को कहाँ ले जाते हैं- इसका आकलन भी जरूरी है। जाहिर है, इन सबसे बचना कठिन है, किंतु इसे ध्यान में रखकर आगे बढ़ने वाले व्यंग्यकारों में बुलाकी शर्मा का नाम प्रमुख है।
संग्रहों के संख्यात्मक आँकड़ों की बजाय सदा गुणवत्ता में विश्वास करने वाले बुलाकी जी की सृजन-यात्रा को केंद्र में रखकर अपनी पुस्तक 'बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार' में मैंने हिंदी और राजस्थानी व्यंग्य विधा में उनके विशिष्ट और उल्लेखनीय अवदान को रेखांकित किया है।
पहले उनके हिंदी व्यंग्यकार पर चर्चा करेंगे, बाद में राजस्थानी व्यंग्यकार पर।
उनके व्यंग्य की प्रहारक क्षमता गजब की है क्योंकि वे 'मैं' यानी स्वयं पर प्रहार करते हैं। सुखलाल जी, कवि धाकड़ जी, अचूकानंद जी जैसे स्वयं के निर्मित चरित्रों से मात खाते 'मैं' में पाठकों को अपना 'मैं' महसूस होने लगता है। 'मैं' की मासूमियत और भोलापन, और दूसरे पात्रों के उससे प्रश्न-प्रतिप्रश्न, साथ ही व्यंग्य में कथा-रस का आस्वाद—ये ऐसे घटक हैं जो उनकी पठनीयता को और अधिक पठनीय बनाते हैं। चर्चित व्यंग्यकार सुभाष चंदर भी उनकी व्यंग्य कथाओं की सराहना करते हुए कहते हैं, ‘बुलाकी शर्मा हिंदी व्यंग्य का एक महत्त्वपूर्ण नाम है। उन्होंने व्यंग्य के सभी रूपों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाई है, पर उनके रचनाकार का सर्वश्रेष्ठ रूप व्यंग्य कथा में देखने को मिलता है। वे प्रसंग वक्रता का बेहतरीन निर्वाह करते हैं।’
बुलाकी शर्मा के भाषा पक्ष की बात करें तो छोटे-छोटे वाक्यों और संवादों के माध्यम से वे मार्मिकता और चुटीलेपन के साथ विविधता को साधते हुए हमें हमारे आस-पास की अनेक समस्याओं के भीतर-बाहर ले जाते हुए विद्रूपताओं को उजागर करते हैं। यह सही भी है कि उनकी व्यंग्य यात्रा में यह भी रेखांकित किए जाने योग्य है कि वे बार-बार व्यंग्य की धार से स्वयं को भी लहूलुहान करने से नहीं चूकते। जहाँ कहीं अवसर मिलता है, वे स्वयं व्यंग्य में घायल सैनिक की भांति हमारे सामने तड़पते हुए हमें स्वचिंतन के लिए विवश करते हैं।
'चेखव की बंदूक', 'रफूगीरी का मौसम', 'पांचवां कबीर' समेत उनके व्यंग्य संग्रहों में साहित्य और समाज के दोहरे चरित्रों को खोलते हुए व्यंग्य-बाणों से भरपूर प्रहार किया गया है। साहित्य और साहित्यकारों पर केंद्रित व्यंग्य 'पांचवां कबीर' में साहित्यिक नामों की फतवेबाजी से हो रही पतनशीलता के साथ दोहरे चरित्रों को केंद्र में रखते हुए निशाना साधा गया है। एक अंश दृष्टव्य है-
'अगले सप्ताह ही तुम्हारी पुस्तक पर मैं स्वयं चर्चा रखवाता हूँ। अपने खर्चे पर। कबीर तो बेचारे राष्ट्रीय कवि हैं। तुम्हारी प्रतिभा अंतरराष्ट्रीय है। इसलिए मैं तुम्हें शहर का इकलौता कवि कीट्स अवतरित करके अंतरराष्ट्रीय कवि स्थापित कर दूँगा। अब तो ग़ुस्सा छोड़ो।'
मंचस्थ 'मठाधीशों' द्वारा किसी को कबीर, किसी को मुक्तिबोध, किसी को बाबा नागार्जुन, किसी को महादेवी, किसी को परसाई-शरद जोशी आदि बताकर साहित्यिक वातावरण बिगाड़ने वालों पर इसमें तीक्ष्ण प्रहार किया गया है। वरिष्ठ व्यंग्यकार सुरेश कांत लिखते हैं- 'बुलाकी शर्मा ने अपने व्यंग्य संग्रह चेखव की बंदूक में राजनीतिक छद्मों, सामाजिक प्रपंचों, आर्थिक विसंगतियों, दफ्तरी दावपेंचों, वैचारिक दो-मुँहपने आदि विभिन्न पहलुओं को अपनी व्यंग्य की जद में लिया है, किंतु जहाँ उनका मन सर्वाधिक समाया है, वह है भाषा और साहित्य जगत की विसंगतियों का क्षेत्र।'
व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा स्थितियों का चित्रण करते हुए बहुत कुछ अनकहा भी अपने पाठकों तक पहुँचाने में जैसे सिद्धहस्त हैं। साहित्य और भाषा का क्षेत्र उनका अपना क्षेत्र है। 'व्यंग्य-यात्रा' के संपादक प्रेम जनमेजय ने लिखा है- 'बुलाकी शर्मा में आत्म-व्यंग्य की प्रतिभा है। उनके पास व्यंग्य-दृष्टि और व्यंग्य भाषा का मुहावरा है।'
बुलाकी शर्मा के आरंभिक व्यंग्य और उसके क्रमिक विकास का आकलन करते हुए हम देख सकते हैं कि उन्होंने अपनी अलहदा शैली का विकास करते हुए व्यंग्य को बेहद बारीक और मारक बनाने की दिशा में बहुत से रास्तों को पार कर लिया है। वे अंतर्मन में अंधकार और द्वंद्व को भी उजागर करते हुए 'आप तो बस आप ही हैं !' जैसी व्यंग्य रचना में व्यवहार में वाक् पटुता और उधार लेने वाले चालबाजों पर बेहद उम्दा व्यंग्य करते हैं।
वरिष्ठ व्यंग्यकार सुशील सिद्धार्थ को उनका यह बतरस अंदाज़ प्रिय था- 'बुलाकी शर्मा छोटे-छोटे अनुभवों, सहज भाषा (मैं इसे बतरस कहूँगा) और मनोरंजन रचना पद्धति से अपने व्यंग्य को विशिष्ट बना देते हैं। वे पाठकों के लेखक हैं। संप्रेषण इतना सधा हुआ है कि अन्य लेखक उनसे सीख सकते हैं।'
सधे हुए संप्रेषण के आगाज़ की बात मार्फत बुलाकी शर्मा करें तो उन्होंने वर्ष 1978 में मुक्त्ता पत्रिका में ‘बजरंगबली की डायरी’ से इस विधा में विधिवत प्रवेश किया। बाद में वे साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, कथादेश, आजकल, व्यंग्य यात्रा, अट्टहास, अमर उजाला, जागरण, ट्रिब्यून, सन्मार्ग, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका समेत अनेक पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य समेत विविध विधाओं में प्रकाशित होते चले गए और यह सिलसिला निरंतर विस्तार पा रहा है।
बुलाकी शर्मा ने छद्म नामों से भी खूब लिखा है। दैनिक भास्कर बीकानेर में ‘अफलातून’ नाम से वे लगभग सात–आठ वर्ष तक साप्ताहिक व्यंग्य स्तंभ 'उलटबांसी' लिखते रहे। फिर कुछ वर्षों के अंतराल पश्चात लगभग तीन वर्ष तक अपने वास्तविक नाम से भी लिखा। वहीं बीकानेर के 'विनायक' समाचार पत्र में साप्ताहिक व्यंग्य स्तंभ 'तिर्यक की तीसरी आँख' कुछ वर्ष छद्म नाम से और सन 2017 में राजकीय सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति पश्चात अपने वास्तविक नाम से लिखा।
प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरीश नवल का मानना है- 'बुलाकी शर्मा का लेखन बहुत आश्वस्त करता है। जैसा स्तरीय लेखन व्यंग्यकार का होना चाहिए, उनका वैसा ही है। उपहास, कटाक्ष, विनोद, हास्य को वे व्यंजना के प्रभाव से बढ़ाने के लिए भी उपयोग करते हैं।'
यदि हम अन्य व्यंग्यकारों और बुलाकी शर्मा के मध्य तात्त्विक अंतर खोजें तो पाएँगे कि उनके व्यंग्य की व्यापकता प्रवृत्तिगत केंद्रीय बिंदु को थामते हुए सधी हुई भाषा में आगे बढ़ा ले जाने में है। उन्होंने लोकभाषा और जनभाषा के महत्त्व को अंगीकार करते हुए व्यंग्य विधा में शिल्प और भाषा पर विशेष ध्यान दिया है। कवि-व्यंग्यकार लालित्य ललित का कहना है- 'व्यंग्य के सुपरिचित हस्ताक्षर बुलाकी शर्मा के पास भाषा का ऐसा शिल्प है जो उन्हें अपने समकालीनों से विशिष्ट बनाता है।'
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के वे अध्येता रहे हैं, इसलिए उन्हें परंपरा और आधुनिकता का बोध है। किसी भी व्यंग्यकार के लिए यह जरूरी होता है कि वह अपनी परंपरा को शक्ति के रूप में स्वीकार करते हुए और निरंतर आधुनिकता की दिशा में अग्रसर रहते हुए समकालीन साहित्य से सतत परिचय बनाए रखे।
यहाँ उनके व्यंग्य संग्रह 'पांचवां कबीर' में संकलित व्यंग्य ‘पिता की फ्रेंड रिक्वेस्ट’ की चर्चा करें तो पाएँगे कि व्यंग्य में आधुनिक विषय के साथ बहुत छोटी-सी और छद्म-सी चिंता- पिता और पुत्र के संबंधों के बीच उजागर करते हुए-व्यंग्यकार ने रोचकता के साथ हमारी यांत्रिकता और आधुनिक समय की त्रासदी पर प्रकाश डाला है। जिस ढंग से फेसबुक मित्रता आग्रह के एक छोटे से प्रसंग को कथात्मक रूप से संजोया गया है, वह अपने आप में असाधारण व्यंग्य इस लिहाज से बनता है कि आज उत्तर-आधुनिकता के समय में पीढ़ियों का अंतराल, सभ्यता और संस्कार आदि सभी कुछ इस व्यंग्य में पाठक के सामने केंद्र में आकर खड़े हो जाते हैं।
व्यंग्यकार का सबसे बड़ा कौशल यही होता है कि वह अपना निशाना साधते हुए ऐसे परखचे उड़ाए कि जब तक पाठक उस अहसास और अनुभूति तक पहुँचे, उसे यह भान हो जाए कि बड़ा धमाका हो चुका है। उसे कुछ करना है- यह ‘कुछ करने’ का अहसास कराना ही व्यंग्य की सफलता है। व्यंग्यकार शर्मा के लिए व्यंग्य हमारे समय की विद्रूपताओं को रेखांकित करते हुए मानव मन में बदलावों के बीज को अंकुरित करने का एक माध्यम है।
व्यंग्यकार के रूप में बुलाकी शर्मा ने अनेक सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किए हैं। राजनीति हो अथवा समाज-व्यवस्था, उन्हें जहाँ कहीं गड़बड़-घोटाला नज़र आया, वे अपनी बात कहने से नहीं चूके हैं। उनके व्यंग्य में उनके अनुभवों का आकर्षण भाषा और शिल्प में देखा जा सकता है। वे अपने पाठ में कब अभिधा से लक्षणा और व्यंजना शब्द-शक्ति का कमाल दिखाने लगते हैं, पता ही नहीं चलता। और जब पता चलता है तब तक हम उसमें इतने आगे निकल आए होते हैं कि पिछली सारी बातें किसी कथा-स्मृति जैसी हमें नए अर्थों और अभिप्रायों की तरफ संकेत करती हुई नज़र आती हैं। ऐसे में विसंगतियों के प्रति संवेदनशीलता और करुणा से हम द्रवित हो जाते हैं।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि वे किसी भी विषय के प्रति न तो अत्यधिक उत्साहित होते हैं, न ही एकदम निराश। उनके लिए व्यंग्य का विषय उनके स्वयं के व्यवहार जैसा कुशल और मंजा हुआ है और उसके निर्वहन में कोई कमी नज़र नहीं आती। वे अपने आस-पास की कमियों को भी बहुत बार कबीर की उलटबांसी की भांति इस तरह बताते हैं कि पाठक सोचने पर विवश हो जाता है।
उल्लेखनीय है कि व्यंग्यकार के साथ ही वे कथाकार भी हैं और हिंदी और राजस्थानी में उनके दो–दो कहानी संग्रह आ चुके हैं। उनका कथाकार, उनके व्यंग्यकार से प्रभावी व्यंग्य कथाएँ लिखवा लेता है। इसी क्रम में प्रसंगवश मैं उल्लेख करना चाहूंगा उनकी प्रसिद्ध व्यंग्य-कथा 'प्रेम प्रकरण पत्रावली' का। इसका शिल्प अपने आप में बेजोड़ है। यह एक प्रेमी द्वारा अपनी प्रेमिका को लिखे प्रेम पत्रों की पत्रावली है। पत्र शैली का यह व्यंग्य उन्होंने अपने कहानी संग्रह 'कथा अनुकम्पा' तथा व्यंग्य-संग्रह 'बेहतरीन व्यंग्य' - दोनों में शामिल किया है, जिसके संबंध में पद्मश्री ज्ञान चतुर्वेदी कहते हैं- 'प्रेम प्रकरण पत्रावली में कैसी कुशलता से ऑफिस नोट्स की भाषा के तेवरों से व्यंग्य पैदा किया गया है, वह पढ़ने-गुनने की चीज है।'
इसी तरह उन्होंने 'कथा अनुकम्पा', 'स्वप्न कथा' आदि कुछ रचनाओं को कहानी और व्यंग्य- दोनों विधाओं के संग्रहों में शामिल किया है। वैसे देखा जाए तो व्यंग्य और कहानी दोनों विधाओं के अपने-अपने अनुशासन हैं, किंतु बुलाकी शर्मा इन दोनों विधाओं के मध्य के सहयात्री हैं। वे अक्सर कहानी में व्यंग्य लिखते हैं और व्यंग्य में कहानी। कहना चाहिए कि कहानी उनके अनुभव में है और व्यंग्य उनके विचार में। उनका यह शैल्पिक बदलाव अथवा पटरियों को बदलने का उपक्रम कहीं किसी भी स्तर पर पाठक को अखरता नहीं, वरन् उसे लुभाता है। बुलाकी शर्मा का यह शैल्पिक कौशल उन्हें समकालीन हिंदी व्यंग्य साहित्य में विशिष्ट पहचान और प्रतिष्ठा दिलाता रहा है।
राजस्थानी के परसाई
अब राजस्थानी व्यंग्य साहित्य में बुलाकी शर्मा के योगदान पर चर्चा करना मुझे जरूरी लग रहा है। उनके ‘साबुत व्यंग्यकार’ को हम तब ही जान–समझ सकेंगे, जब उनके हिंदी व्यंग्य के साथ राजस्थानी व्यंग्य से रूबरू होंगे। केवल हिंदी या केवल राजस्थानी व्यंग्य में उनके अवदान की बात करना, उनके व्यंग्यकार के साथ ‘अन्याय’ करना ही माना जाएगा- और ऐसी गलती करने की धृष्टता मैं कतई नहीं करूंगा।
राजस्थानी के साथ हिंदी के प्रख्यात कथाकार विजयदान देथा ‘बिज्जी’ का साहित्यकारों के बीच यह कहना था कि बुलाकी शर्मा राजस्थानी के परसाई हैं। इसका कोई लिखित साक्ष्य नहीं है, किंतु साहित्यिक मित्रों के बीच यह कथन चर्चा में रहा है। बिज्जी ने बुलाकी जी के बारे में यह बात तब कही थी, जब तक उनके मात्र दो राजस्थानी व्यंग्य संग्रह- 'कवि, कविता अर घरआळी' (1987) और 'इज्जत में इजाफो' (2000), यानी कुल 32 व्यंग्य- पुस्तकाकार प्रकाशित हुए थे। 'इज्जत में इजाफो' व्यंग्य संग्रह साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली के राजस्थानी पुरस्कार के लिए विचाराधीन सूची में तब जरूर शामिल था।
क्या मात्र दो व्यंग्य संग्रहों के आधार पर बिज्जी द्वारा बुलाकी शर्मा को राजस्थानी भाषा का परसाई कहना उचित कहा जा सकता है? माना कि पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी बहुत-सी व्यंग्य रचनाएँ संग्रह के रूप में नहीं आ सकी हों, अथवा उनके अनेक अप्रकाशित राजस्थानी व्यंग्य रहे हों, फिर भी क्या यह कथन अतिशयोक्ति जैसा नहीं लगता?
कीर्तिशेष कथाकार देथा जी का यह कथन मुझे कभी अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं लगा, क्योंकि राजस्थानी में व्यंग्य को विधा के रूप में स्थापित करने वालों में बुलाकी शर्मा का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। राजस्थानी भाषा का उनका पहला व्यंग्य संग्रह 'कवि, कविता अर घरआळी' राजस्थानी भाषा का पहला व्यंग्य संग्रह भी है। उनके इस संग्रह के प्रकाशन के बाद ही अन्य राजस्थानी व्यंग्यकारों के संग्रह आने आरंभ हुए। देथा जी ने उन्हें ‘राजस्थानी का परसाई’ उनके संख्यात्मक अवदान को लेकर नहीं, बल्कि व्यंग्य क्षेत्र में उनकी पूरी निष्ठा और समर्पण से की गई सतत साधना को देखते हुए कहा होगा।
इन दो व्यंग्य संग्रहों के बाद उनके दो और व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं- 'आपां महान' और 'तैरूंडै में किताब'। यह भी सुखद है कि राजस्थानी के वे ऐसे पहले व्यंग्यकार हैं जिनके चार व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हैं। यहाँ मैं अपने हवाले से पुख्तगी से यह कह रहा हूँ कि बुलाकी शर्मा राजस्थानी व्यंग्य विधा के परसाई हैं।
बुलाकी शर्मा ने अपने व्यंग्य संग्रह 'इज्जत में इजाफो' के समर्पण में लिखा है-
'राजस्थानी गद्य में व्यंग्य विधा नै ठावी ठौड़ दिरावणिया सांवर दइया री ओळूं नै।'
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सांवर दइया और बुलाकी शर्मा ने व्यंग्य विधा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है, किंतु दइया जी के असामयिक निधन के कारण उनकी व्यंग्य-यात्रा 'इक्यावन व्यंग्य' नामक पुस्तक के साथ पूर्ण हो गई, जो उनके देहावसान पश्चात प्रकाशित हुई। राजस्थानी व्यंग्य विधा को बुलाकी शर्मा से बहुत अपेक्षाएँ और उम्मीदें इसलिए भी हैं कि वे हिंदी के भी प्रमुख व्यंग्यकार हैं, अतः निश्चय ही उनकी राजस्थानी व्यंग्य-यात्रा बहुत दूर तक जाने वाली है।
जिस भाँति परसाई जी ने हिंदी में व्यंग्य को विधा के रूप में स्थापित किया, वैसे ही राजस्थानी में व्यंग्य को विधा रूप में प्रतिष्ठित करने वालों में बुलाकी शर्मा का नाम अग्रिम पंक्ति में लिया जाता है। बुलाकी शर्मा और राजस्थानी के अन्य व्यंग्यकारों में खास फर्क यह है कि वे व्यंग्य की व्यापक प्रवृत्तियों और भाषा से बखूबी परिचित हैं, क्योंकि उन्होंने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का अध्ययन, मनन और चिंतन किया है। वे व्यंग्य-आलेख अथवा व्यंग्य-कहानी में सतत नवीन प्रयोग करने की कोशिश करते रहे हैं और भाषा तथा शिल्प के स्तर पर कई सफल प्रयोग भी किए हैं।
उन्होंने परंपरा को शक्ति के रूप में स्वीकार करते हुए आधुनिकता की दिशा को अपनाया है। स्थानीयता और लौकिक सत्यों के साथ वे स्थिति के अनुसार कभी पाठक के पक्ष में और कभी प्रतिपक्ष में खड़े होने से भी नहीं हिचकते। उन्होंने अपनी स्थिति कभी भी एक जैसी अथवा पूर्व निर्धारित नहीं रखी। उनमें जीवन के प्रति आकर्षण का भाव है। वे बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक के जीवन में विनोद और विसंगतियों को ढूँढ़ लेने में सक्षम हैं। ऐसी अनेक विशेषताओं के कारण उन्हें राजस्थानी व्यंग्य का परसाई कहा जा सकता है।
वे हिंदी में भी लिखते हैं, किंतु हिंदी के संदर्भ में यह उक्ति विचारणीय नहीं है, क्योंकि हिंदी व्यंग्य का क्षेत्र बहुत व्यापक है और वहाँ परसाई सदैव के लिए उपस्थित हैं। हिंदी में बुलाकी शर्मा को बस बुलाकी शर्मा ही होना है- और वे हिंदी व्यंग्य के प्रमुख हस्ताक्षर हैं।
बुलाकी शर्मा प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने वाले व्यंग्यकार हैं। उनके पहले राजस्थानी व्यंग्य संग्रह 'कवि, कविता अर घरआळी' की रचनाओं में उनका यह तेवर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। शीर्षक रचना 'कवि, कविता अर घरआळी' में कथात्मकता भी है और संवादों का आनंद भी। यहाँ घर-समाज में कविता के अवमूल्यन की स्थितियाँ और विरोधाभास की व्यंजना प्रमुखता से उभरती है। साहित्य, विशेषकर कविता को लेकर कवियों के जीवन पर करारा प्रहार किया गया है। बुलाकी शर्मा इस सत्य को स्थापित करने में सफल हुए हैं कि कोई व्यक्ति हर समय कवि नहीं हो सकता अथवा उसे हर समय कवि नहीं होना चाहिए।
कवियों द्वारा श्रोताओं पर किए जाते ‘अत्याचारों’ को लेकर उन्होंने हिंदी में भी कई व्यंग्य लिखे हैं। वे हिंदी और राजस्थानी- दोनों भाषाओं में समान रूप से व्यंग्य लिखते रहे हैं, इसलिए उनकी कुछ रचनाएँ राजस्थानी से हिंदी और हिंदी से राजस्थानी में मौलिक रचनाओं के रूप में प्रस्तुत हुई हैं। जैसे इसी संग्रह की रचना 'संकट टळग्यो' को 'दुर्घटना के इर्द-गिर्द' नाम से दस वर्ष बाद प्रकाशित हिंदी संग्रह में संकलित किया गया है। इसी तरह इस संग्रह में शामिल व्यंग्य 'ज्योतिष रो चक्कर', हिंदी में 'अंकज्योतिष का चक्कर' के रूप में प्रस्तुत हुआ है।
इसी विषय को लेकर उनके राजस्थानी व्यंग्य संग्रह 'इज्जत में इजाफो' का शीर्षक व्यंग्य अखबार के राशिफल का रहस्य उद्घाटित करता है। वे अंधविश्वासों पर प्रहार करते हैं और उसे कथात्मक उदाहरणों द्वारा पोषित करते हैं।
बुलाकी शर्मा अपने निजी जीवन में सरकारी नौकरी के दौरान कई कार्यालयों से जुड़े रहे और उन्होंने अनेक व्यंग्य रचनाओं में दफ्तर के चित्र प्रस्तुत किए हैं। 'दफ्तर' नामक व्यंग्य में नए अफसर को काबू में करने की रोचक कहानी है, तो 'दफ्तर-गाथा' में चार लघुकथाओं के माध्यम से कार्यालय की अनियमितताओं की ओर संकेत किया गया है। उनके व्यंग्य में छोटी-छोटी घटनाओं और प्रसंगों के माध्यम से समय, समाज और देश अपने बदलते रूप में हमारे सामने आते हैं। वे बदलते समाज को शब्दों में बाँधते हुए अनेक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संकेत करते हैं।
'नेतागिरी रो महातम' में बदलती राजनीति और राजनीति से पोषित हो रहे छोटे-बड़े नेताओं को लक्षित किया गया है, वहीं 'मिलावटिया जिंदाबाद' में, जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है, मिलावट पर करारा व्यंग्य किया गया है। यहाँ उन्होंने जिस पाचक घी को लक्षित किया है, उसी की तरह हिंदी में लिखे गए एक व्यंग्य में उन्होंने पाचक दूध के माध्यम से मिलावट और बदलते समय पर तीखा प्रहार किया है।
बुलाकी शर्मा को आरंभिक प्रसिद्धि 1978 में प्रकाशित 'बजरंगबली की डायरी' से मिली और इसका परिवर्तित-परिवर्धित स्वरूप उनके व्यंग्य संग्रह 'इज्जत में इजाफो' (2000) में भी देखा जा सकता है। कहानी में व्यंग्य और व्यंग्य में कहानी लिखने का कौशल वे हिंदी के साथ-साथ राजस्थानी में भी बखूबी निभाते हैं। इसका अनुपम उदाहरण उनका व्यंग्य 'पूंगी' है। आरंभ में यह व्यंग्य निबंध के रूप में शुरू होता है-
'साब अर सांप री रासी एक है, बियां ई दोनां री तासीर ई एक सरीखी हुवै।'
किन्तु शीघ्र ही यह साहब और उनके चापलूस कर्मचारी की कहानी में ढल जाता है। यह बहुचर्चित व्यंग्य-कथा लंबे समय से विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल है, और साहित्य अकादेमी की पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' में इसके हिंदी अनुवाद के प्रकाशन पर इसे पाठकों की भरपूर सराहना मिली।
कथाकार मालचंद तिवाड़ी ने इस पर लिखा है- 'पूंगी अपने समग्र प्रभाव में एक बेधक और मारक व्यंग्य होते हुए भी अपनी रोचकता और आख्यानात्मकता के बल पर कहानी के शिल्प में बुलाकी शर्मा की गहरी पकड़ का साक्ष्य है। बुलाकी शर्मा की राजस्थानी रचनाएँ पढ़ते हुए अंतोन चेखव और हरिशंकर परसाई याद आते हैं, क्योंकि विडंबना (आयरनी) की पहचान और उसके रचाव का प्रत्यक्ष विकास वे छोटे-छोटे आख्यानों के जरिये प्रस्तुत करते हैं।'
'इज्जत में इजाफो' संग्रह में राजस्थानी भाषा, साहित्य और साहित्यकारों पर तीखे व्यंग्य हैं। बुलाकी शर्मा के लेखन-संसार में किसी को कोई माफी नहीं- वे स्वयं भी नहीं। 'थे चिंता करो' में राजस्थानी भाषा की मान्यता से जुड़े मसले को तटस्थ भाव से देखते हुए जहाँ आवश्यक समझा, वहाँ स्पष्ट आलोचना भी की गई है। यह समूचा चिंतन और चिंता व्यंग्य के स्तर पर उनकी अपनी मातृभाषा राजस्थानी और उसके साहित्य के प्रति प्रेम का प्रमाण है।
'सियाळो अर साहित्यकार', 'गुपतज्ञान', 'टाळवीं रचना भेजूं !', 'साहित्य सूं सरोकार' जैसे व्यंग्य लेखों में वे समकालीन लेखकीय प्रवृत्तियों की परतें जिस सटीक और कटाक्षपूर्ण भाषा में खोलते हैं, वह देखने योग्य है।
'सियाळो अर साहित्यकार' की यह पंक्ति गौरतलब है-
'अबकी तो थांरी लाऊ-झाऊ टक्कर में है। लागै बाजी मार लेसी।'
यहाँ पुस्तक का नाम 'लाऊ-झाऊ' और आगे 'पांगळी' जैसे शब्दों का चतुर प्रयोग करते हुए उन्होंने साहित्यिक प्रवृत्तियों की सांकेतिकता और आलोचना का जो समावेश किया है, वह बुलाकी शर्मा के भाषिक चमत्कार और व्यंग्यात्मक कौशल को दर्शाता है।
उनकी अन्य व्यंग्य रचनाओं में गुरु-टीचर, पुरातन-नवीन संस्कार, भक्ति-दर्शन-पुराण, और बुद्धिजीवियों का चिंतन भी केंद्र में रहा है। 'आपां महान' और 'तैरूंडे में किताब'- ये दोनों व्यंग्य संग्रह उनके प्रसिद्ध संग्रह 'इज्जत में इजाफो' के बीस वर्ष बाद प्रकाशित हुए। जैसा कि पहले उल्लेखित किया गया है, वे हिंदी के साथ-साथ राजस्थानी व्यंग्य स्तंभ भी वर्षों तक लिखते रहे हैं।
लगभग दो वर्षों से वे महाराष्ट्र, मुंबई के लोकप्रिय हिंदी दैनिक 'सामना' में साप्ताहिक राजस्थानी व्यंग्य स्तंभ 'रौबीलो राजस्थान' लिख रहे हैं, जिसे प्रवासी राजस्थानी पाठकों द्वारा खूब सराहा जा रहा है। किंतु बुलाकी शर्मा कभी भी पुस्तक प्रकाशन की जल्दबाजी में नहीं रहे। इन वर्षों में उनकी सृजनात्मक रेंज में जो विस्तार आया है, उसका प्रमाण इन दोनों राजस्थानी व्यंग्य संग्रहों से मिलता है।
'तैरूंडै में किताब' संग्रह में बुलाकी शर्मा के राजस्थानी व्यंग्य लेखन का श्रेष्ठ अवदान देखा जा सकता है। इसमें भयावह कोरोना काल में लिखे गए व्यंग्य भी शामिल हैं, जिनमें जीवन की त्रासदियों के बीच हास्य और व्यंग्य की स्थितियों को उभारने के अद्भुत जतन किए गए हैं। इसी प्रकार व्यंग्य के उत्थान के लिए साहित्य अकादेमी से प्रकाशित 'विकळांग श्रद्धा रो दौर' (हरिशंकर परसाई के व्यंग्य संग्रह का राजस्थानी अनुवाद) को एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में देखा जाना चाहिए। यह प्रसन्नता की बात है कि जिन्हें हम व्यंग्य का मानक मानते हैं, उनके व्यंग्य जब भारत की सभी भाषाओं में पहुँचेंगे तो मूल्यांकन के साथ-साथ परस्पर तुलना का मार्ग भी खुलेगा। राजस्थानी पाठकों तक परसाई को पहुँचाने की यह पहल इस अनुवाद के माध्यम से बुलाकी शर्मा ने ही की है।
निश्चित ही वे हिंदी के साथ-साथ राजस्थानी के भी विशिष्ट व्यंग्यकार हैं। वरिष्ठ कवि, संपादक और व्यंग्यकार नागराज शर्मा सच ही कहते हैं- 'बुलाकी शर्मा व्यंग्य विधा के महारथी, राजस्थानी के सारथी और मानव-मनोविज्ञान के पारखी हैं।'
प्रख्यात व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी के शब्दों के साथ मैं अपनी बात को विराम देता हूँ-
'बुलाकी शर्मा व्यंग्य के उन इने-गिने समकालीन हस्ताक्षरों में से हैं, जो चाहें तो भी बेहतरीन के अलावा कुछ लिख नहीं पाते।'
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