समय की कसौटी पर प्रासंगिक अरविंद तिवारी के व्यंग्य
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डॉ. नीरज दइया
अरविंद तिवारी के चार व्यंग्य उपन्यास- दीया तले अंधेरा (1997), शेष अगले अंक में (2000), हैड ऑफिस के गिरगिट (2014) और लिफाफे में कविता (2021) हिंदी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। ये व्यंग्य उपन्यास अपने-अपने समय और संदर्भों में समाज के अलग-अलग चेहरों को हमारे सामने लाते हैं। कहना होगा कि इन रचनाओं में समाज, शिक्षा-व्यवस्था और साहित्यिक जीवन की परतें इतनी सहजता से खुलती हैं कि पाठक हल्के फुल्के हास्य के साथ-साथ गहरी बेचैनी भी महसूस करता है। अरविंद तिवारी के लिए व्यंग्य विसंगतियों की एक ऐसी शल्यक्रिया है- जिसके माध्यम से वे हमें ऐसे गहरे दलदल में उतार देते हैं कि उससे हमें हमारे आसपास ही नहीं वरन स्वयं के भीतर की गंदगी भी महसूस होने लगती है। इन चारों व्यंग्य उपन्यासों को पढ़ते हुए यह साफ़ हो जाता है कि वे व्यंग्य को केवल मनोरंजन का साधन नहीं मानते, बल्कि उसे सामाजिक आलोचना और यथार्थ को बेनकाब करने का सशक्त औजार समझते हैं।
'दीया तले अँधेरा' शीर्षक अपने आप में बहुत अर्थपूर्ण और प्रतीकात्मक है। यह न केवल उपन्यास की कथा-वस्तु की दिशा तय करता है बल्कि लेखक की दृष्टि और व्यंग्यात्मक मंशा का भी संकेत देता है। जब हम इस शीर्षक पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि दीपक का कार्य अंधकार को दूर करना है, लेकिन विडंबना यह है कि दीपक के तले हमेशा अंधेरा ही रहता है। अरविंद तिवारी ने इसी विरोधाभास को शिक्षा, समाज और जीवन के संदर्भ में गढ़ा है। यहां उनका शिक्षा विभाग से जुड़े होना और उनके शिक्षक जीवन के अनुभव बेहद प्रभावशाली रूप में अंकित हुए हैं।
यह उपन्यास आभासी उजाले और वास्तविक अंधकार की टकराहट को सामने लाता है। समाज अक्सर उन बातों पर गर्व करता है जिन्हें वह अपनी ताक़त मानता है, लेकिन गहराई से देखने पर वही बातें उसकी कमजोरी और विफलता का प्रमाण बन जाती हैं। शिक्षा-व्यवस्था और संस्कृति के नाम पर चमकता हुआ उजाला वास्तव में ऊपर-ऊपर का आभास है, जबकि भीतर गहरे अंधकार का साम्राज्य फैला हुआ है। यह अंधकार घर-आंगन में, अपने जीवन और व्यवहार में, रिश्तों और मूल्यों में मौजूद है।
दिया तले अँधेरा में व्यंग्य का निशाना यही है कि हम लोग बाहर की चकाचौंध में खोकर अपने निकट के अंधकार को देखना ही नहीं चाहते। शिक्षा, समाज, राजनीति और पारिवारिक जीवन में जो असमानता, पाखंड और खोखलापन व्याप्त है, उसे स्वीकारने के बजाय हम केवल उस उजाले की ओर देखते हैं जो दिखावे का है। दीपक के प्रकाश की तरह वह उजाला हमें दूर तक रोशन करता दिखता है, लेकिन ठीक उसके नीचे का अंधकार हमारे विवेक और संवेदना से ओझल रहता है।
इस उपन्यास की शक्ति इस बात में है कि यह पाठक को बार-बार सोचने पर विवश करता है। वह अपने आसपास की परिस्थितियों का निरीक्षण करता है और समझने लगता है कि जिन उपलब्धियों और गर्व के प्रतीकों को समाज गिनाता है, उन्हीं के भीतर सबसे अधिक कमज़ोरी और हमारी विफलता छिपी है। यहां यह रेखांकित करने योग्य है कि इस व्यंग्य उपन्यास का उद्देश्य किसी व्यक्ति विशेष पर व्यंग्य करना नहीं, बल्कि उस सामूहिक प्रवृत्ति को सामने लाना है जो दिखावे को सच मान लेती है और असलियत की अनदेखी करती है। यह हमें यह संदेश देता है कि सच्चा साहस बाहर की रोशनी का दिखावा करने में नहीं, बल्कि अपने घर-आंगन के अंधकार से आंखें मिलाने और उसे दूर करने में है।
'शेष अगले अंक में' अरविंद तिवारी का दूसरा व्यंग्य उपन्यास है, जिसमें उन्होंने हिंदी साहित्य में कस्बाई पत्रकारिता की दुनिया को पहली बार केंद्र में रख कर अविस्मरणीय बना दिया है। यह रचना केवल एक छोटे कस्बे की पत्रकारिता की कहानी नहीं है, बल्कि पूरे पत्रकारिता जगत की सच्चाइयों का दर्पण है। 'विज्ञापन का अर्थ है सरकारी विज्ञापन। और सरकारी विज्ञापन मिलते नहीं झपटने होते हैं।' लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कही जाने वाली पत्रकारिता को लेखक ने जिस दृष्टि से पकड़ा है, वह न केवल व्यंग्यात्मक है बल्कि गहराई से सोचने पर मजबूर करता एक सच भी है।
एक छोटे कस्बे नागौर अखबारी दुनिया के किस्से के बहाने इस उपन्यास में यह दिखाया गया है कि कैसे छोटे शहरों के अखबार, उनके मालिक और पत्रकार मिलकर समाचार को सत्य की जगह माल की श्रेणी में रूपांतरित कर देते हैं।
जनसम्पर्क अधिकारी प्रशांत कुमार शर्मा के नागौर आने और छोड़ने के बीच के सफर का यह आख्यान है। हम जानते हैं कि पेड न्यूज़, विज्ञापन और सत्ता से मिलीभगत पत्रकारिता को खोखला कर देते हैं। यह कितना वीभत्स सत्य है कि समाचार वह नहीं होता जो जनता को जानना चाहिए, बल्कि वह होता है जिसे प्रकाशित करने पर लाभ हो। अरविंद तिवारी ने इस प्रवृत्ति को अत्यंत मारक ढंग से सामने रखा है। उपन्यास का नायक प्रशांत कुमार एक ईमानदार और आदर्शवादी व्यक्ति है, लेकिन पत्रकारिता और सत्ता के इस गठजोड़ में उसकी ईमानदारी हास्यास्पद बन जाती है। वह व्यवस्था के जाल में उलझा ऐसा पात्र है जो सही रास्ते पर चलते हुए भी पराजित दिखाई देता है। यही उसकी त्रासदी है और यही इस उपन्यास का मुख्य व्यंग्य है।
यह छोटे शहरों की पत्रकारिता का प्रामाणिक चेहरा सामने लाती है। कस्बाई अखबारों में समाचार कम और सौदे अधिक होते हैं। पत्रकारिता, जिसे समाज की आवाज और लोकतंत्र का प्रहरी माना गया है, वास्तव में अवसरवाद और लाभ-हानि का खेल बन चुकी है। यहाँ अखबार सच को छापकर नहीं, बल्कि सौदे करके अपना अस्तित्व बचाते हैं। यही कारण है कि उपन्यास पढ़ते हुए पाठक समझ जाता है कि पत्रकारिता का चौथा स्तंभ भीतर से कितना खोखला और जर्जर हो चुका है। यह न तो केवल पत्रकारिता का मजाक उड़ाता है, न ही सिर्फ़ व्यक्तियों की कमजोरियों पर चोट करता है वरन उस पूरी मानसिकता को उजागर कर एक ऐसे परिदृश्य को सामने लाता है, जहाँ पत्रकारिता पेशा नहीं, बल्कि मुनाफाखोरी का साधन बन चुकी है। एक अंश देखें- 'उजड्डता से व्यक्ति गुंडा बनता है। गुंडई काले धंधे करवाती है। काले धंधे से धन उपजता है और धन से अख़बार निकलता है। अख़बार निकालने से व्यक्ति को सुख प्राप्त होता है।' उपन्यास में अखबार निकालने में ही सुख तलाशते कई तरह के पात्रों के रोचक किस्से हैं। ज्यादातर किस्से सच्ची घटनाओं पर हैं यहां यह भी कहा जा सकता है कि यह उपन्यास उनके 'लिफाफे में। कविता' की एक प्रकार से आधार भूमि भी है। साहित्य और पत्रकारिता दोनों धाराएं आपस में बेहद घुली मिली हुई हैं। वर्तमान समय का सच यह है कि शब्द अब प्रकाशित जरूर होते हैं किंतु उनमें प्रकाश कितना है यह विचारणीय मुद्दा है क्षेत्र भले पत्रकारिता का हो या साहित्य का। साहित्य, सत्ता और मीडिया का गठजोड़ समाज में सूचना की जगह भ्रम फैलाते हैं, हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को खोखला करता जा रहा है।
एक-दो अंश देखें- 'संवेदना तो उनके हृदय में कूट-कूट कर भरी थी। जैसे उनके फ्रिज में शराब और बीयर की बोतल भरी थी।'; 'अपनी जिंदादिली और शराब के कारण वे पतझड़ से बसंत ऐसे खींच लाते थे जैसे अकाल के बावजूद जिले में अच्छी फसल होने के संबंध में प्रेसनोट जारी किया करते थे।' अथवा 'कन्हैया लाल स्नातक से साप्ताहिक अखबार ‘प्रदेश समाचार’ और राम अकेला के ‘तलवार’ के बीच... यह प्रतिद्वंदिता कुछ उसी तरह की थी जो एक प्रेमिका के दो प्रेमियों के मध्य होती है।'
इस उपन्यास पर लिखते हुए राहुल देव ने लिखा है- 'आपका यह उपन्यास हिंदी व्यंग्य उपन्यासों की श्रेणी में अग्रिम पंक्ति में रखे जाने लायक है।' अरविंद तिवारी का यह भाषिक और शैल्पिक कौशल है कि वे सतह पर सहज-सरल, किस्सागोई की भाषा में चलते हैं लेकिन भीतर गहरे सामाजिक विडंबना को अपने शिल्प से उजागर कर देते हैं। यही इस व्यंग्य उपन्यास की उपलब्धि है।
अरविंद तिवारी तीसरा व्यंग्य–उपन्यास 'हेड ऑफिस के गिरगिट' हमारे समय की नौकरशाही की विडंबनाओं को बेहद तीखे और प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करता है। उपन्यास का आरंभिक बिंदु है अंबुज जी का हेडऑफिस ज्वॉइन करना है और समापन है- उनके लाइन में हाजिर होने में। इस यात्रा के बीच अनेक अनुभव अंतर्कथाओं में अभिव्यक्ति पाते हैं किंतु अरविंद जी शिक्षा विभाग और भारतीय नौकरशाही के कामकाज का विहंगम चित्र केंद्र में प्रस्तुत करते हुए विसंगतियों को उजागर करते हैं। यह कृति इस विरोधाभास को रेखांकित करती है कि फील्ड में पूरी तरह नाकारा और अक्षम समझा जाने वाला अधिकारी जैसे ही हेड ऑफिस पहुंचता है, वहां का माहौल और राजनीति उसे अचानक सबसे योग्य और प्रभावशाली घोषित कर देती है। यही वह गिरगिटपन है, जिसे लेखक ने रूपक के रूप में पकड़ते हुए पूरी शिक्षा विभाग के माध्यम से नौकरशाही का चेहरा सामने रखा है। उपन्यास अवसरवाद की उस प्रवृत्ति को उजागर करता है, जो छोटे-छोटे पदों, नियमों और अनुशासन की आड़ में लगातार पलती है और पूरी व्यवस्था को खोखला बनाती है। अरविन्द तिवारी जी राजस्थान शिक्षा विभाग के विभागीय प्रकाशनों-पत्रिकाओं से संपादक के रूप में वर्ष 1996 से 1999 तक जुड़े रहे हैं। राजस्थान में बीकानेर शिक्षा-जगत का केंद्र बिंदु माना जाता है। उन्होंने यहां अनेक घटना-क्रम देखे, सुने और भोगे हैं। यह इन्हीं अनुभवों के आधार पर यह लिखा अथवा कहें अनुभवों से जुड़ा हुआ व्यंग्य-उपन्यास है। यह कारण है कि इसमें दफ़्तरी-जीवन की विसंगतियां यहां बेहद रोचक ढंग से वर्णित हैं। इस उपन्यास की व्यंग्यात्मक शक्ति इस बात में है कि यह केवल किसी समुदाय अथवा विशेष व्यक्तियों पर नहीं, बल्कि पूरे प्रशासनिक ढांचे पर प्रहार करता है। इसमें यह दिखाया गया है कि किस प्रकार सत्ता के केंद्र तक पहुंचते ही आदमी अपनी नाकामियों को छिपाकर एक नया आवरण ओढ़ लेता है। इस प्रवृत्ति में न केवल उसकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा छिपी होती है, बल्कि उस पूरे तंत्र की सड़ांध भी जिसमें योग्यताओं का मूल्यांकन काम के आधार पर नहीं, बल्कि जोड़-तोड़ और चापलूसी के आधार पर होता है।
इस उपन्यास से कुछ पंक्तियां देखें- 'जिस दफ्तर में अफसर के कमरे को बारह बजे झाड़ा जाता हो उस दफ्तर के बारह बजने ही हैं!' ; 'जूतों के तलवों में छेद थे। चौकीदार ने एक जूते के तलवे के छेद से मीणा साहब को उसी तरह देखा जैसे पतिव्रता नारी करवाचौथ का चंद्रमा देखने के लिए छलनी का प्रयोग करती है।' ; 'आम गधे और हेड ऑफिस के गधे में सिर्फ एक अंतर है। आम गधा गुस्से में लात चला सकता है जबकि हेड ऑफिस का गधा लात को उठा भी नहीं सकता।' अथवा 'लिफाफे पर गोपनीय लिखा था, मगर दफ्तर में सबको पता था।'
उपन्यास की भाषा संवाद-शैली उपन्यास को गहरी धार देती है। उपन्यासकार ने घटनाओं का सिलसिला ऐसा रचा गया है कि पाठक बिना बोझिल हुए व्यवस्था की हकीकत को महसूस कर सकते हैं। 'भारत में भ्रष्टाचार और दफ़्तर की धूल , दोनों का एक ही स्वभाव है , चाहे जितना झाडू मारो, अपनी जगह नहीं छोड़ते।' ऐसे अनेकानेक पंच पाठ में भीतर ही भीतर एक कटु व्यंग्यबोध का उत्तरोतर विकास करते हैं। यही कारण है कि यह उपन्यास केवल नौकरशाही की पोल खोलने वाला सटीक दस्तावेज नहीं, वरन उस मानसिकता पर भी गहरी और तीखी टिप्पणी है जिसने देश में अवसरवाद को व्यवस्था का स्थाई चरित्र बना दिया है। कहना होगा कि उन्नीस अध्यायों में मामला पूरा इक्कीस का है यानी नीचे से लेकर ऊपर तक जो भी इसकी रेंज में है उसे लेखक ने बक्शा नहीं है। व्यंग्य की ही भाषा में कहें तो यह एक प्रकार का शिक्षा जगत की धुलाई और सफाई के लिए ठोस धरातल तैयार करता है। सूरत बदलनी चाहिए, और बदलेगी कैसे यह फैसला हमारे भीतर उपन्यास एक जज्बे के रूप में तैयार करता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण संभवतः इस व्यंग्य उपन्यास को किताबघर के ’आर्य स्मृति सम्मान’ से सम्मानित किया गया।
अरविंद तिवारी का चौथा व्यंग्य उपन्यास 'लिफाफे में कविता' हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण और नवीन हस्तक्षेप इस रूप में। है कि यह उपन्यास कवि सम्मेलनों और मंचीय कवियों की दुनिया का तीखा और यथार्थपरक चित्र प्रस्तुत करता है। यह बहद रोचकता के साथ व्यंग्य विधा में नया आयाम देने वाला उपन्यास है। तिवारी स्वयं लंबे समय तक मंचीय कविता और साहित्यिक गतिविधियों से जुड़े रहे हैं, जिससे उन्हें इस दुनिया का प्रत्यक्ष अनुभव है और उनका व्यंग्य यथार्थ के इतने करीब है कि पाठक को ऐसा लगता है कि यह चित्रण उनके देखे-सुने कवियों और सम्मेलनों का ही है।
उपन्यास मंचीय कवियों की मक्कारी, पैंतरेबाजी, अवसरवाद और चाटुकारिता को अभिव्यक्ति देते हुए उस काल के पतन को उजागर करता है। कवि सम्मेलनों में कविता का स्तर गिर चुका है, साहित्य मंच अब केवल दिखावे का माध्यम बन गया है और पुरस्कार तथा दक्षिणा के लिए धंधेबाजी होती है। अरविंद तिवारी ने पात्रों के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि मंचीय कवि पैसे के आगे अपने सिद्धांत, परिवार और मित्रता को भी छोड़ देते हैं। कवि सम्मेलनों का ग्लैमर किसी से छुपा नहीं है, परंतु वह उद्योग का रूप धारण कर चुका है और मूल उद्देश्य- साहित्य और कविता का प्रचार-प्रसार अब दूसरे स्थान पर चला गया है।
उपन्यास की भाषा सरल, चुटीली और अत्यंत व्यंग्यात्मक है। इसमें मुहावरों, कहावतों और कविता के संयोजन से पात्र और घटनाएं जीवंत होती हैं। उदाहरण के लिए, अंगदजी द्वारा मंचीय कवि को पैसे के महत्त्व और उनके व्यवहार की व्यंग्यात्मक शिक्षा, या लोमड़ कवि की फाइव स्टार होटल में हिंदी के प्रति आश्चर्य और व्यंग्य की व्यंजनाएं, पाठक को हास्य के साथ गंभीर सोच की ओर ले जाने वाली हैं। अरविंद तिवारी ने इस उपन्यास में केवल मंचीय कवियों को ही नहीं, बल्कि उनके परिवेश यथा- संपादक, आयोजक, गाइड, परिवार और समाज का भी सटीक संयोजन प्रस्तुत किया है। एक-दो उदाहरण देखें जिससे उपन्यास के मूल रंग की छटा का अहसास हो सके- 'कवि-सम्मेलनों की दुनिया की लिमिट बस सम्मान और अपमान के बीच रहती आई है। ये कवि-सम्मेलन की दुनिया के ओर-छोर हैं। इन्ही दोनों सीमाओं के भीतर उठा-पटक ,राजनीति, साहित्य वगैरह समाए हुए हैं।'
दोसरा- 'मंचीय कवि के लिए सबसे बड़ा पैसा होता है। वह पैसे के अलावा किसी के आगे नहीं झुकता। पैसे के आगे वह अपना परिवार, मित्र, गांव-जवार, सिद्धांत आदि को छोड़ देता है।'
अंतिम- 'जिस दफ्तर का अधिकारी कवि होता है ,उसका चपरासी तक समीक्षक हो जाता है। उस दफ़तर के छोटे बाबू अपने को गुलाबराय और बड़े बाबू रामचन्द्र शुक्ल मानने लगते हैं।'
कृति का महत्व इसलिए भी है कि यह कवि सम्मेलनों और साहित्यिक आयोजनों की व्यापक पड़ताल वर्तमान सामाजिक परिप्रेक्ष्य में करती है। यह कृति यह भी बताती है कि कैसे साहित्यिक जगत में भाई-भतीजावाद, मिलीभगत, भ्रष्टाचार और अवसरवादिता व्याप्त है। मंचीय कवियों की धूर्तता, बेईमानी, धोखाधड़ी और जुगाड़, पुरस्कार पाने की चालाकियां सभी को उपन्यास में गहराई से दिखाया गया है। पाठक इसे पढ़ते हुए न केवल व्यंग्य का आनंद लेता है बल्कि साहित्य जगत के असली चेहरों और विसंगतियों को भी समझ पाता है। उपन्यास में भाषा में सरलता और सादगी के साथ इक्कीस अध्यायों में कसावट और व्यंग्य की तीव्रता बनी रहती है, जो इसे पठनीय और संग्रहणीय बनाती है।
यह उपन्यास हिंदी व्यंग्य साहित्य में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराता है और अरविंद तिवारी की व्यंग्यात्मक क्षमता और गहरी सामाजिक दृष्टि के उत्कर्ष को प्रामाणिक आधार देता है।
अरविंद तिवारी के चारों व्यंग्य उपन्यास समाज और व्यवस्था की विसंगतियों का गहन और तीखा अलिखित इतिहास प्रस्तुत करते हैं। तिवारी के व्यंग्य विस्तार की जड़ें गहरी और व्यापक हैं। वे राजनीति, नौकरशाही, पत्रकारिता, शिक्षा और साहित्य आदि क्षेत्रों की परतों को खोलते हुए पाठक के सामने जीवंत चित्र प्रस्तुत करते हैं। उनकी खासियत यह है कि व्यंग्य के जरिए मनोरंजन के साथ मूल उद्देश्य व्यक्ति के सोच और आत्मचिंतन को जाग्रत करने की दिशा को प्रकाशित करते हैं। भाषा सरल-सहज, चुटीली और रोज़मर्रा की परिस्थितियों से जुड़ी है, पात्र इतने वास्तविक हैं कि पाठक उन्हें अपने आसपास अनुभव करता है। व्यंग्य की गहराई सतही नहीं, बल्कि मुद्दों की तह में जाकर हमें भीतर गहरे तक कुरेदती है।
कहना होगा कि अरविंद तिवारी के व्यंग्य उपन्यास हिंदी गद्य-परंपरा में व्यंग्य-उपन्यास धारा में नया विस्तार लाते हैं। वे 'राग दरबारी' की परंपरा को सहेजते-संभालते हर शिक्षा, समाज, सत्ता और साहित्यिक जगत में मौजूद पाखंड, भ्रष्टाचार और विसंगतियों पर सटीक और तीखा कटाक्ष करते हैं। उनके व्यंग्य में हास्य केवल प्रारंभिक उपकरण है; अंतिम लक्ष्य आत्मचिंतन और सामाजिक सचाई को सामने लाना है। यही कारण है कि अरविंद तिवारी आज के समकालीन व्यंग्यकारों में विशिष्ट स्थान रखते हैं और उनकी कृतियां समय की कसौटी पर प्रासंगिक बनी रहती हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश साहित्य अकादमी का श्रीनारायण चतुर्वेदी पुरस्कार उनके संपूर्ण व्यंग्य लेखन पर मिला है। राहुल देव के शब्दों में कह सकते हैं- 'अरविंद तिवारी के बगैर समकालीन हिंदी व्यंग्य की चर्चा अधूरी ही कही जाएगी।'
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डॉ. नीरज दइया




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