Sunday, 31 August 2025

डिजिटल युग में व्यंग्य के बदलते आयाम/ डॉ. नीरज दइया


समय के साथ साहित्य की विधाएं बदलती हैं, उनकी प्रस्तुतियों के माध्यम और अंदाज बदलते हैं, और पाठकों के साथ उनका संवाद भी नए रूप में सामने आता है। व्यंग्य, जो अपने मूल रूप में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विसंगतियों पर कटाक्ष करने का माध्यम रहा है, वह भी समय के इस प्रवाह से अछूता नहीं रहा है। आज का युग ‘डिजिटल युग’ कहा जाता है। यह एक ऐसा समय जब तकनीक, इंटरनेट, सोशल मीडिया और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे कारक न केवल जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित कर रहे हैं, वरन अभिव्यक्ति के स्वरूप को भी नए  आयामों द्वारा विस्तार दे रहे हैं। इस युग में व्यंग्य की भाषा, विषय, शिल्प और माध्यम आदि सभी घटकों में परिवर्तन देखा जा सकता है।

व्यंग्य जो पहले अखबारों, पत्रिकाओं और किताबों तक सीमित था, अब ब्लॉग, ट्विटर, फेसबुक पोस्ट, यूट्यूब वीडियो, इंस्टाग्राम रील्स और मीम्स के माध्यम से लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुंच रहा है। यह बदलाव केवल मंच अथवा माध्यम का नहीं है, बल्कि दृष्टिकोण और प्रस्तुति का भी है। अब व्यंग्यकार न केवल कलम से, बल्कि कैमरे, एडिटिंग टूल्स और सोशल मीडिया आदि के जरिए भी अपने व्यंग्य को आकार और आयाम दे रहा है। इससे व्यंग्य में एक नया और प्रमुख आयाम सामने आया है जिससे रचना की जहां व्यापक और तत्काल प्रभाव की संभावनाएं बढ़ी है वहीं उसके भीड़ में खो जाने का बड़ा खतरा भी हमारे सामने है।

डिजिटल युग में व्यंग्य के विषय भी पहले की तुलना में अधिक विविध आयामों को लेते हुए विस्तारित हो गए हैं। जहां पहले राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और नैतिक विषयों पर व्यंग्य केंद्रित रहता था, वहीं अब नए विषय यथा- डिजिटल संस्कृति, मोबाइल लत, आभासी संबंध, डेटा गोपनीयता, ओटीटी की दुनिया, ऑनलाइन शिक्षा, ट्रोलिंग, इन्फ्लुएंसर मार्केटिंग, ब्रांड संस्कृति आदि आदि भी व्यंग्य का हिस्सा बन चुके हैं। व्यंग्य अब केवल नीति और नेता तक सीमित नहीं रहा है वह ‘डिजिटल मनुष्य’ के व्यवहार तक पहुंच चुका है। मनुष्य की मूल प्रवृत्तियां और मूल्य भले परंपरागत हो किंतु उनमें वर्तमान की त्रासदियों और सुख-दुख का साहित्य में व्यापक असर देखा जा सकता है।

यह बदलाव केवल स्थितियों का नहीं है, अब व्यंग्य की भाषा और शैली भी बदली है। आज का डिजिटल पाठक लंबा लेख पढ़ने के बजाय छोटे, तीखे, तुरंत असर करने वाले वाक्य या दृश्य को अधिक पसंद करता है। इसलिए व्यंग्य भी ‘संक्षिप्तता’ की ओर झुका है। यहां कहना चाहिए कि लंबे और किसी बात तथ्य को विस्तार से कहने लिखने की परंपरा लुप्त सी होती जा रही है। एक मीम या 280-अक्षरों की ट्वीट में वह प्रभाव डाला जा रहा है, जो पहले एक पूरे निबंध अथवा किसी आलेख से निकलता था। इसका अर्थ यह नहीं कि गहराई कम हुई है, बल्कि यह कि माध्यम के अनुरूप भाषा और शैली में बदलाव हुआ है। इसे सभी माध्यमों ने सहजता से स्वीकार भी किया है।

डिजिटल व्यंग्य में चित्र, वीडियो, संगीत और गति का समावेश भी एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। व्यंग्य अब केवल पठन नहीं, बल्कि ‘दृश्यानुभव’ बन चुका है। जैसे यूट्यूब पर व्यंग्य वीडियो, इंस्टाग्राम रील्स में नेताओं के भाषणों का हास्य संस्करण या ट्विटर पर नेताओं के बयानों पर कटाक्ष- ये सब डिजिटल व्यंग्य की नई विधाओं के रूप में हमारे सामने चुनौती हैं। इनसे व्यंग्य का जन-संचार अधिक तेज़, प्रभावी और व्यापक हो गया है। अब वह केवल समाचार पत्र-पत्रिकाओं अथवा किताबों तक सीमित नहीं रह गया है।

डिजिटल युग में व्यंग्य की लोकतांत्रिकता भी बढ़ी है। अब कोई भी व्यक्ति, बिना बड़े प्रकाशक या मंच के, अपने विचार व्यक्त कर सकता है। इससे व्यंग्य लेखन के अवसर बढ़े हैं और अनेक नए लेखक, कलाकार, मीम क्रिएटर सामने आए हैं। इसने व्यंग्य को ‘जन- जन की आवाज’ बनाया है। लेकिन साथ ही, इसमें एक बड़ा खतरा भी जुड़ा है- व्यंग्य और अपमान, आलोचना और नफरत के बीच की सीमा रेखाएं गायब या कहें धुंधली हो रही हैं। सोशल मीडिया पर ‘व्यंग्य’ के नाम पर अक्सर द्वेषपूर्ण और पक्षपातपूर्ण कंटेंट भी देख सकते है, जो व्यंग्य की गरिमा और उद्देश्य को कमजोर कर रहे हैं। इन माध्यमों ने पहले की दुनिया, हमारे मूल्यों को तहस नहस कर दिया है।

डिजिटल व्यंग्य का एक और आयाम उसका क्षणभंगुर होना है। पहले जो व्यंग्य लेख वर्षों तक पढ़ा और याद किया जाता था, आज वह एक मीम या वीडियो कुछ ही घंटों में वायरल होकर फिर कहीं इस भीड़ में खो जाता है अथवा कहें भुला दिया जाता है। यह गति, हालांकि प्रभावशाली है, परंतु दीर्घकालिक स्मृति या साहित्यिक गहराई में कमी लाती है। ऐसे में यह आवश्यक हो गया है कि डिजिटल व्यंग्यकार अपनी सामग्री में गहराई, मौलिकता और साहित्यिक शिष्टता बनाए रखने की दिशा में विचार करें।

आज के डिजिटल व्यंग्यकारों में कुछ नाम सामने आए हैं जिन्होंने तकनीक का रचनात्मक प्रयोग कर परंपरागत व्यंग्य को एक नई दिशा दी है। ऑनलाइन व्यंग्य लेखन में ब्लॉगर्स, इंस्टाग्राम कंटेंट क्रिएटर्स, यूट्यूबर ने ऐसे विषयों को छुआ है जिन्हें पारंपरिक व्यंग्य में कम स्थान मिला करता था- जैसे युवाओं की बेरोजगारी, तकनीकी सर्वेक्षण, ऐप आधारित जीवनशैली, आभासी रिश्ते आदि। ऐसे लेखक और कलाकार नए दौर की चुनौतियों को व्यंग्य के हथियार से संबोधित कर रहे हैं।

यह कहना गलत नहीं होगा कि डिजिटल युग ने व्यंग्य को अधिक जीवंत, अधिक सशक्त और अधिक समावेशी बना दिया है। अब व्यंग्य न केवल साहित्य में है, बल्कि जन-जन की भाषा बन चुका है। सोशल मीडिया पर एक तीखा ट्वीट या एक कटाक्षपूर्ण मीम सत्ता को उतना ही असहज कर सकता है जितना एक लंबे संपादकीय अथवा व्यंग्य आलेख द्वारा पहले होता था। इस शक्ति के साथ एक जिम्मेदारी भी जुड़ी है- व्यंग्य में विवेक, संयम और उद्देश्य की स्पष्टता बनी रहनी चाहिए। उसकी संभावनाएं और आयामों  को खुला रखना चाहिए।

डिजिटल युग में व्यंग्य के इन नए आयामों को समझना केवल साहित्य के लिए आवश्यक नहीं, बल्कि समाज की राजनीतिक और सांस्कृतिक समझ के लिए भी ज़रूरी है। यह युग जिस गति से बदल रहा है, उसमें व्यंग्य ही वह विधा है जो गंभीरता को हास्य की चादर में लपेटकर समाज को उसका यथार्थ दिखाने का कार्य कर रही है। इसलिए, आज का व्यंग्यकार यदि डिजिटल साधनों का उपयोग करते हुए अपनी कलम को नई धार दे रहा है, तो वह न केवल व्यंग्य की परंपरा को आगे बढ़ा रहा है, बल्कि उसे समय के अनुरूप और अधिक प्रासंगिक भी बना रहा है। लेखन के क्षेत्र में भी ऐसे अनुभवों पर अनेक नए व्यंग्यकारों ने कलम चलाई है।

इस प्रकार, डिजिटल युग में व्यंग्य के बदलते आयाम हमें यह संकेत देते हैं कि व्यंग्य एक जीवंत, लचीला और अनवरत विकसित होने वाली विधा है जो अपनी परंपरागत आवरण को त्याग चुका है। अब यह केवल बीते समय का दस्तावेज नहीं, बल्कि वर्तमान का सजीव चित्र और भविष्य की संभावनाओं की नई झलक प्रस्तुत कर रहा है। नई तकनीकें, नए मंच, और नया पाठक वर्ग व्यंग्य को निरंतर नया रूप दे रहे हैं, और यह परिवर्तन हिंदी व्यंग्य साहित्य को और अधिक व्यापक, प्रभावी तथा समकालीन बना रहा है।



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