Wednesday, 10 September 2025

राजस्थानी व्यंग्य की प्राथमिकताएं/ डॉ. नीरज दइया


‘राजस्थानी व्यंग्य’ से यहां मेरा अभिप्राय राजस्थानी भाषा में आज़ादी के बाद स्थापित और विकसित एक गद्य विधा के रूप में व्यंग्य-साहित्य से है। इस विषय का सबसे बड़ा व्यंग्य यह है कि राजस्थानी भाषा और साहित्य की विशालता की बात करते हुए हम हिंदी भाषा और साहित्य को पीछे छोड़ देना चाहते हैं। और हमारी इस चाहत को आप एक विशेष अर्थ में देखेंगे तो आपको यकीन करना होगा कि वास्तव में राजस्थानी से हिंदी पीछे है। यह व्यंग्य नहीं, वास्तविकता है कि हिंदी साहित्य का विशाल भवन राजस्थानी साहित्य पर खड़ा हुआ है। आदिकाल में रासो-काव्य के अंतर्गत ‘पृथ्वीराज रासो’ और अन्य रासो रचनाएं मूल रूप में राजस्थानी भाषा की हैं। यह सत्य है कि हिंदी भाषा की नींव में राजस्थानी भाषा है, तो यहां यह भी कहा जा सकता है कि वर्षों पहले राजस्थानी के ऊपर हिंदी को स्थापित कर निरंतर विकसित किया गया है। ऐसे में यहां किसी भाषाई तुलना अथवा मुकाबले की बात व्यंग्य विधा पर चर्चा करते हुए अनुचित है। राजस्थानी भाषा में लिखे गए व्यंग्य और राजस्थान में लिखे गए हिंदी व्यंग्य की बात व्यापक परिदृश्य में सद्भावना से होनी चाहिए। राजस्थानी व्यंग्य की प्राथमिकता मुख्य रूप से सद्भावना ही है, और यहां मैं विषय का दायरा व्यापक करते हुए निवेदन करना चाहता हूं कि मूलतः हमारे संपूर्ण वैश्विक साहित्य की प्राथमिकता सद्भावना है।

राजस्थान के लोक साहित्य में सद्भावना का घटक बहुत व्यापक और विशाल रूप में देखा जा सकता है। यहां आधुनिक साहित्य की व्यंग्य विधा पर बात आरंभ करने से पहले सद्भावना का एक उदाहरण मैं अपने शहर बीकानेर (राजस्थान) की स्थापना विषयक कथा से देना चाहता हूं। एक दिन राव जोधा दरबार में बैठे थे, बीकाजी दरबार में देर से आए तथा प्रणाम कर अपने चाचा कांधल से कान में धीरे-धीरे बात करने लगे। यह देख कर जोधा ने व्यंग्य में कहा— ‘मालूम होता है कि चाचा-भतीजा किसी नवीन राज्य को विजित करने की योजना बना रहे हैं।’ इस पर बीका और कांधल ने कहा कि यदि आपकी कृपा होगी तो यही होगा। और इसी के साथ चाचा-भतीजा दोनों दरबार से उठ कर चले आए तथा दोनों ने कालांतर में बीकानेर राज्य की स्थापना की। इस संदर्भ के हवाले से व्यंग्य की प्राथमिकता की बात कह सकते हैं कि वह सदैव सकारात्मक रूप से ग्रहण किए जाने योग्य हो। साथ ही अपने लक्ष्य का संधान उसका उद्देश्य हो। राजस्थानी साहित्य, लोक साहित्य और कविता में व्यंग्य घटक की भरमार रही है, वहीं जिस गद्य विधा की हम व्यंग्य के रूप में पहचान कर रहे हैं... वह बहुत बाद में धीरे-धीरे विकसित हुआ।

राजस्थानी व्यंग्य के आरंभिक काल में व्यंग्य और हास्य को पर्याय मानकर लिखने वाले बहुत रचनाकार हैं। डॉ. मदन केवलिया का मानना है— ‘हास्य और व्यंग्य दो अलग-अलग चीजें हैं, व्यंग्य बहुत तीखा होता है और सीधा दिल में उतरकर कहीं रह जाता है, यह आर-पार नहीं होता, एक कसक छोड़ देता है।’

डॉ. चेतन स्वामी के अनुसार— ‘व्यंग्य में बात को टेढ़ा करके कहा जाता है, उपदेश और व्यंग्य में एक मूलभूत अंतर होता है कि उपदेश सीधा होता है, व्यंग्यकार उपदेशी नहीं होता लेकिन प्रकारांतर से देखें तो वह उपदेशी ही होता है।’

राजस्थानी में आधुनिक युगबोध की अभिव्यक्ति व्यंग्य के माध्यम से हो रही है। राजस्थानी ठसक के साथ ऐसे व्यंग्य लिखे गए हैं, जिनको पढ़कर बेजुबान लोग भी तिलमिलाते हैं और बोलने लगते हैं। व्यंग्य में यह तिलमिलाना और बोलना बहुत बाद में आरंभ हुआ। प्रेमजी प्रेम के ‘चमचो’ (1973) के बारे में नहुष व्यास का कहना है— ‘चमचो प्रथम हाड़ौती का हास्य-व्यंग्य है।’ राजस्थानी में व्यंग्य की जमीन बनाने में मनोहर शर्मा के ‘रोहिड़ै रा फूल’, श्रीलाल नथमल जोशी के ‘सबड़का’, नृसिंह राजपुरोहित के ‘हास्यां हरि मिळै’, बुद्धिप्रकाश पारीक के ‘चबड़का’ और मूलचंद प्राणेश के ‘हियै तणा उपाय’ का योगदान माना जाना चाहिए।

राजस्थानी व्यंग्य के आदि पुरुष भले कोई भी रहे हों, किंतु व्यंग्य रचनाओं को पुस्तकाकार कर पहली व्यंग्य-कृति व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा की ‘कवि, कविता अर घरआळी’ (1987) है। राजस्थानी और हिंदी में व्यंग्यकार के रूप में ख्यातिप्राप्त बुलाकी शर्मा के हिंदी में अनेक व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हैं, किंतु राजस्थानी में ‘इज्जत में इजाफो’ (2000), ‘आपां महान’ (2020) और 'तेरूंडै में किताब' सहित चार व्यंग्य-कृतियां हैं, अस्तु इस विधा में उनका आधिपत्य है।

अन्य कृतियों की बात करें तो- चेतन स्वामी द्वारा संपादित संग्रह 'रचाव' (1991) इस दिशा का पहला संपादित व्यंग्य-संग्रह है। प्रवासी लेखकों में प्रहलाद श्रीमाळी के ‘आवळ-कावळ’ (1991) और भगवतीप्रसाद चौधरी के ‘सुपनै में चाणक’ (1995) के बाद राजस्थान के युवा व्यंग्यकार के रूप में जिसने सर्वाधिक ख्याति प्राप्त की  वह शंकरसिंह राजपुरोहित है। राजपुरोहित ने ‘सुण अरजुण’ (1995) और ‘म्रित्यु रासौ’ (2017) द्वारा व्यंग्य को एक नई भाषा और नई ऊँचाई दी।

सांवर दइया का व्यंग्य संग्रह ‘इक्कयावन व्यंग्य’ (1996) उनके निधन के चार वर्ष बाद प्रकाशित हो सका। इस संग्रह के व्यंग्य उन्होंने काफी पहले लिखे जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और संकलनों में प्रकाशित हुईं। डॉ. नृसिंह राजपुरोहित का कहना था— ‘सांवर दइया में व्यंग्य करने का अच्छा सामर्थ्य है। चादर में लपेट कर जूता मारना हरेक के बस का रोग नहीं है।’

प्रवासी लेखकों में श्याम गोइन्का के तीन संग्रह प्रकाशित हुए- बनड़ां रो सौदागर (1988), लोड़ी मोड़ी मथरी (1994), गादड़ो बड़ग्यो (1999)। राजस्थानी भाषा के व्यंग्य साहित्य के पहली बार 'व्यंग्य-यात्रा' के जनवरी-मार्च, 2010 विशेषांक में पहचाना गया। भारतीय भाषाओं में मध्य यह व्यंग्य की पहचान आलेखों और रचनाओं के अनुवाद द्वारा हुई जिसमें– प्रेम जनमेजय, मदन केवलिया, अजय अनुरागी, शरद उपाध्याय, बुलाकी शर्मा, श्याम गोइन्का, नागराज शर्मा का प्रमुख योगदान रहा है। इस अंक में शरद उपाध्‍याय के राजस्‍थानी व्‍यंग्‍य पुस्तक री समीक्षा विजय जोशी करते हैं और व्यंग्य अपनी जगह बनाता हुआ प्रतीत होता है।

राजस्थानी व्यंग्य साहित्य में अनेक लेखकों ने अपने मौलिक योगदान से इस विधा को समृद्ध किया है। 2004 में मदन केवलिया की 'गिनिज बुक सारू' और नंदकिशोर सोमानी की 'फाईल री आत्मकथा' जैसी कृतियाँ प्रकाशित हुईं, जो राजस्थानी व्यंग्य लेखन की नई धारा की शुरुआत मानी जाती है। वर्ष 2005 में नागराज शर्मा की 'धापली रो लोकतंत्र', मनोहरसिंह राठौड़ की 'मूंछां री मरोड़', विनोद सोमानी ‘हंस’ की 'पांच छंग तीस' और दुर्गेश की 'उजळा दागी' ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। इसी क्रम में हरमन चौहान की 'लखणां रा लाडा' (2006), शरद उपाध्याय की 'चुगली री गुगली' (2007), देवकिशन राजपुरोहित की 'म्हारा व्यंग्य' (2009) और 'निवण' (2012) आदि कृतियां प्रकाशित हुईं। वर्ष 2010 में नागराज शर्मा की दूसरी कृति 'एक अदद सुदामा', मंगत बादल की 'भेड़ अर उन रो गणित' और श्याम जांगिड़ की 'म्हारो अध्यक्षता कांड' सामने आईं। श्यामसुंदर भारती की 'कलम अर बंदूक' (2012) और सुरेंद्र शर्मा की 'महूँ पिच खोद्यां मानूंगो' (2013) ने व्यंग्य को समकालीन संदर्भों से जोड़ा।वर्ष 2015 में छगनलाल व्यास की 'पत्नीव्रता' और छत्र छाजेड़ की 'जे इयां है तो है', वर्ष 2016 में कैलासदान लालस की 'भला जो देखन मैं चला', वर्ष 2017 में पूरन शर्मा की 'चस्को राम राज रो', वर्ष 2020 में राजेन्द्र शर्मा ‘मुसाफिर’ की 'सत्त बोल्यां गत' और दुलाराम सहारण की 'पताळतोड़ हूंस' जैसे प्रकाशन इस विधा की निरंतरता और समृद्धि के निरंतर प्रमाण बने हैं। इनके साथ-साथ भगवतीलाल व्यास, त्रिलोक गोयल, रामकुमार ओझा ‘बुद्धिजीवी’, प्रहलाद श्रीमाली, गोपाल राजगोपल, सुखदेव राव, पवन पहाड़िया और शिवराज छंगाणी जैसे अनेक रचनाकारों ने भी राजस्थानी व्यंग्य लेखन को विविधता और गहराई प्रदान की है। इसी क्रम में नई रचनात्मकता के साथ कुछ व्यंग्य संग्रह और है, जैसे पवन पहाड़िया का 'छींक, छेती अर छींकी' (2023), रामरतन लटियाल का 'कुण छोटौ कुण मोटौ' और रामजीलाल घोड़ेला का 'जुगाड़'।

यह हर्ष का विषय है कि कृष्ण कुमार आशु का राजस्थानी में पहला व्यंग्य उपन्यास ‘ब्याधि उच्छव’ आया है और उन्होंने प्रेम जनमेजय के व्यंग्य-संग्रह 'हँसो हँसो यार हँसो' का राजस्थानी में अनुवाद किया है। इसी क्रम में बुलाकी शर्मा ने हरिशंकर परसाई के साहित्य अकादेमी से सम्मानित कृति 'विकलांग श्रद्धा का दौर' का राजस्थानी अनुवाद किया है। आशा है कि दीनदयाल शर्मा और ओम नागर के व्यंग्य संग्रह जल्द ही राजस्थानी में आएंगे।

राजस्थानी व्यंग्य-साहित्य को लोकप्रियता और पहचान दिलाने में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। दैनिक 'युगपक्ष' में मंगलवार को प्रकाशित होने वाले मायड़ भाषा परिशिष्ट, 'बिणजारो' और 'माणक' जैसी पत्रिकाओं में निरंतर व्यंग्य-रचनाओं के प्रकाशन से इस विधा को विशेष गति मिली है। इसी प्रकार ‘जागती जोत’, ‘राजस्थली’, ‘मरवण’ जैसी प्रतिष्ठित राजस्थानी पत्रिकाओं में भी व्यंग्य निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं। उल्लेखनीय है कि बहुभाषी पत्रिका ‘हास्य-व्यंग्यम’ में भी राजस्थानी व्यंग्य को नियमित रूप से स्थान मिल रहा है।

राजस्थान के बाहर भी राजस्थानी व्यंग्य की प्रभावशाली उपस्थिति देखने को मिलती है। महाराष्ट्र के मुंबई से प्रकाशित ‘सामना’ समाचार पत्र में लगभग दो वर्षों से ‘रौबीलो राजस्थान’ शीर्षक के अंतर्गत प्रसिद्ध व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा द्वारा लिखित साप्ताहिक राजस्थानी व्यंग्य स्तंभ प्रकाशित हो रहा है। यह स्पष्ट संकेत करता है कि प्रवासी राजस्थानियों में भी अपनी मातृभाषा और व्यंग्य साहित्य के प्रति गहरा जुड़ाव बना हुआ है।

समग्रता से विचार करें तो व्यंग्य साहित्य की वह विधा है जो केवल वर्णन या आलोचना नहीं करती, बल्कि गहरे सामाजिक यथार्थ को उजागर करने का सशक्त माध्यम बनती है। इसकी प्राथमिकता विसंगतियों को पहचानना और उन्हें ऐसी शैली में सामने लाना है जो पाठक को सहज रूप से असहज कर दे — यानी भीतर तक स्पर्श करे। व्यंग्य का मूल उद्देश्य मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना का विकास है। जब रचना पाठक को उसके समय, समाज और भूमिका पर विचार करने को विवश करे, तभी वह एक सच्चे व्यंग्य की कसौटी पर खरी उतरती है।

एक प्रभावशाली व्यंग्य पाठक को केवल विचलित नहीं करता, बल्कि उसे सोचने और आत्मचिंतन की स्थिति में ले जाता है। वह रचना को बाहरी दृश्य से भीतर की सच्चाई तक ले जाने का माध्यम बनती है। लेखक की दृष्टि वस्तुनिष्ठ, विवेकसम्मत और व्यापक होनी चाहिए, जिससे वह किसी व्यक्ति या वर्ग विशेष को लक्ष्य बनाने के बजाय संपूर्ण सामाजिक यथार्थ की आलोचना कर सके। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि व्यंग्य में भाषा की गरिमा और अभिव्यक्ति की शालीनता बनी रहनी चाहिए। उसमें मौलिकता, रचनात्मक दृष्टिकोण और नवोन्मेष हो, तभी वह प्रभावशाली बनता है।

संक्षेप में, व्यंग्य की प्राथमिकता समाज के भीतर छिपी विडंबनाओं, विरोधाभासों और अन्यायों को उजागर करना है। एक सशक्त व्यंग्य पाठक को सतह से खींचकर गहराई में ले जाता है, जहाँ वह न केवल स्थितियों को पहचानता है, बल्कि स्वयं को भी उन स्थितियों के मध्य खड़ा पाता है — यही अनुभूति व्यंग्य की सच्ची सफलता है। 

एक सच्चाई यह भी है कि राजस्थानी भाषा के समर्पित रचनाकारों के बीच कुछ रचनाकार ऐसे भी आए हैं जो मूल रूप से हिंदी के व्यंग्यकार हैं, किंतु राजस्थानी में कुछ लाभ को देखकर आए हैं। उन्हें भाषा की गरिमा बनाने की दिशा में कार्य करना होगा।

व्यंग्य की प्राथमिकता यह है कि उसे आलोचना मिले जो दिशा दे सके। आलोचना में शास्त्रीय व्याख्या और देश-विदेश के बड़े लंबे चौड़े उदाहरणों की जगह हम राजस्थानी में हुए काम को देखें जिससे ज्ञात हो कि राजस्थानी व्यंग्यकारों ने प्रायः ग्रामीण और कस्बाई परिवेश में फैले सामाजिक अंतर्विरोधों को केंद्र में रखते हुए अपनी व्यंग्य-दृष्टि को विकसित किया है। यहाँ विषयों की विविधता है – शिक्षा व्यवस्था, भ्रष्टाचार, सामाजिक दिखावा, जातीय जकड़न, राजनीति की नाटकीयता – और इन सब पर एक गहरी, अनुभवजन्य आलोचनात्मक दृष्टि के साथ कटाक्ष किया गया है।

राजस्थानी व्यंग्य में हास्य गौण है और टिप्पणी प्रधान। व्यंग्यकार की दृष्टि तटस्थ न होकर संवेदनशील और विचारशील होती है, जो केवल चुटकी नहीं लेती, बल्कि समाज को आईना दिखाने का काम करती है। इस विधा में भाषा की व्यंजनात्मकता, मुहावरों की तीक्ष्णता और शैली की बोलचाल वाली जीवंतता उसे अधिक प्रभावशाली बनाती है।

इस प्रकार, राजस्थानी व्यंग्य एक ऐसी विधा बनकर उभरा है जो न केवल स्थानीयता को अभिव्यक्त करता है, बल्कि वैश्विक व्यंग्य की परंपरा में भी अपनी जगह बनाता है। यह विधा जनभाषा में जनचिंतन की सशक्त अभिव्यक्ति है, जो न केवल पढ़ी जाती है बल्कि सुनी, समझी और महसूस भी की जाती है।

नीरज दइया

Tuesday, 2 September 2025

साहित्य और समाज के दोहरे चरित्रों को खोलते व्यंग्य/ डॉ. नीरज दइया

व्यंग्य विधा में देशव्यापी पहचान बनाने वाले व्यंग्यकारों में राजस्थान से बुलाकी शर्मा का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। उनका सद्य प्रकाशित दसवां व्यंग्य संग्रह ‘पांचवां कबीर’ साहित्य और समाज के दोहरे चरित्रों को खोलते हुए व्यंग्य-बाणों से भरपूर प्रहार करने में समर्थ है। साहित्य और साहित्यकारों पर केंद्रित शीर्षक व्यंग्य में साहित्यिक नामों की फतवेबाजी से हो रही पतनशीलता के साथ दोहरे चरित्रों को केंद्र में रखते हुए निशाना साधा गया है। व्यंग्य का अंश है- ‘अगले सप्ताह ही तुम्हारी पुस्तक पर मैं स्वयं चर्चा रखवाता हूं। अपने खर्चे पर। कबीर तो बिचारे राष्ट्रीय कवि हैं। तुम्हारी प्रतिभा अंतरराष्ट्रीय है। इसलिए मैं तुम्हें शहर का इकलौता कवि कीट्स अवतरित करके अंतरराष्ट्रीय कवि स्थापित कर दूंगा। अब तो गुस्सा छोड़ो।’ व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा स्थितियों का चित्रण करते हुए बहुत कुछ अनकहा भी अपने पाठकों तक पहुंचाने में जैसे सिद्धहस्त है।

            बुलाकी शर्मा के व्यंग्यों में सर्वाधिक उल्लेखनीय भाषा-शैली है। वे किसी भी तथ्य, बिंदु, छोटे से समाचार अथवा घटना को कहानी के रूप में बतरस के साथ कहन-कौशल रखते हैं। साधारण से असाधारण और असाधारण से साधारण स्थितियों में व्यंग्य खोजना और उनमें अपने पाठकों को ऐसे प्रवेश कराते हैं कि आश्चर्यचकित करते हैं। ‘पिता की फ्रेंड रिक्वेट’ में आधुनिक समय की त्रासदी को जिस ढंग से फेसबुक मित्रता आग्रह के एक छोटे से प्रसंग से कथात्मक रूप से संजोया है वह अपने आप में असाधारण व्यंग्य इस लिहाज से बनता है कि आज उत्तर आधुनिकता के समय पीढ़ियों का अंतराल, सभ्यता और संस्कार सभी कुछ उनके व्यंग्य से पाठक के सामने केंद्र में आकर खड़े हो जाते हैं। व्यंग्यकार का सबसे बड़ा कौशल यही होता है कि वह अपना निशाना साधते हुए ऐसे पर्खचे उड़ाए कि जब तक पाठक उस अहसास और अनुभूति तक पहुंचे तो उसे भान हो जाए कि बड़ा धमाका हो चुका है। उसे कुछ करना है, यह कुछ करने का अहसास करना ही व्यंग्य की सफलता है। व्यंग्यकार शर्मा के लिए व्यंग्य हमारे समय की विद्रूपताओं को रेखांकित करते हुआ मानव मन में बदलावों के बीजों को अंकुरित करने का एक माध्यम है।

            संग्रह ‘पांचवां कबीर’ में आकार की दृष्टि से छोटे, बड़े और मध्यम सभी प्रकार की व्यंग्य रचनाएं संकलित हुई हैं, वहीं अंतिम व्यंग्य ‘मेरी डायरी के कुछ चुनिंदा पृष्ठ’ स्वयं लेखक द्वारा राजस्थानी भाषा से अनूदित रचना है। बुलाकी शर्मा की प्रस्तुत कृति में कोरोना काल से जुड़े कुछ व्यंग्य हैं, तो समकालीन राजनीति-साहित्य समाज को भी इसमें सीधा-सीधा निशाने पर लिया गया है। अखबारों में कॉलम के रूप में लिखे जाने व्यंग्य अपनी तात्कालिकता और समसामियता के कारण समयोपरांत वह असर नहीं छोड़ते हैं जो उसके लिखे जाने के वक्त रहा होता है। जाहिर है बुलाकी शर्मा के इस व्यंग्य संग्रह में कुछ ऐसे व्यंग्य भी हैं जिनमें स्थानीयता और तात्कालिक स्थितियां हावी हैं। यह सुरुचिपूर्ण बेहद पठनीय संग्रह को इंडिया नेटबुक्स नौएडा ने प्रकाशित किया है।

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आभार : श्री सुभाष राय जी, श्री बुलाकी शर्मा जी


Sunday, 31 August 2025

अख्तर अली


 

डिजिटल युग में व्यंग्य के बदलते आयाम/ डॉ. नीरज दइया


समय के साथ साहित्य की विधाएं बदलती हैं, उनकी प्रस्तुतियों के माध्यम और अंदाज बदलते हैं, और पाठकों के साथ उनका संवाद भी नए रूप में सामने आता है। व्यंग्य, जो अपने मूल रूप में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विसंगतियों पर कटाक्ष करने का माध्यम रहा है, वह भी समय के इस प्रवाह से अछूता नहीं रहा है। आज का युग ‘डिजिटल युग’ कहा जाता है। यह एक ऐसा समय जब तकनीक, इंटरनेट, सोशल मीडिया और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे कारक न केवल जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित कर रहे हैं, वरन अभिव्यक्ति के स्वरूप को भी नए  आयामों द्वारा विस्तार दे रहे हैं। इस युग में व्यंग्य की भाषा, विषय, शिल्प और माध्यम आदि सभी घटकों में परिवर्तन देखा जा सकता है।

व्यंग्य जो पहले अखबारों, पत्रिकाओं और किताबों तक सीमित था, अब ब्लॉग, ट्विटर, फेसबुक पोस्ट, यूट्यूब वीडियो, इंस्टाग्राम रील्स और मीम्स के माध्यम से लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुंच रहा है। यह बदलाव केवल मंच अथवा माध्यम का नहीं है, बल्कि दृष्टिकोण और प्रस्तुति का भी है। अब व्यंग्यकार न केवल कलम से, बल्कि कैमरे, एडिटिंग टूल्स और सोशल मीडिया आदि के जरिए भी अपने व्यंग्य को आकार और आयाम दे रहा है। इससे व्यंग्य में एक नया और प्रमुख आयाम सामने आया है जिससे रचना की जहां व्यापक और तत्काल प्रभाव की संभावनाएं बढ़ी है वहीं उसके भीड़ में खो जाने का बड़ा खतरा भी हमारे सामने है।

डिजिटल युग में व्यंग्य के विषय भी पहले की तुलना में अधिक विविध आयामों को लेते हुए विस्तारित हो गए हैं। जहां पहले राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और नैतिक विषयों पर व्यंग्य केंद्रित रहता था, वहीं अब नए विषय यथा- डिजिटल संस्कृति, मोबाइल लत, आभासी संबंध, डेटा गोपनीयता, ओटीटी की दुनिया, ऑनलाइन शिक्षा, ट्रोलिंग, इन्फ्लुएंसर मार्केटिंग, ब्रांड संस्कृति आदि आदि भी व्यंग्य का हिस्सा बन चुके हैं। व्यंग्य अब केवल नीति और नेता तक सीमित नहीं रहा है वह ‘डिजिटल मनुष्य’ के व्यवहार तक पहुंच चुका है। मनुष्य की मूल प्रवृत्तियां और मूल्य भले परंपरागत हो किंतु उनमें वर्तमान की त्रासदियों और सुख-दुख का साहित्य में व्यापक असर देखा जा सकता है।

यह बदलाव केवल स्थितियों का नहीं है, अब व्यंग्य की भाषा और शैली भी बदली है। आज का डिजिटल पाठक लंबा लेख पढ़ने के बजाय छोटे, तीखे, तुरंत असर करने वाले वाक्य या दृश्य को अधिक पसंद करता है। इसलिए व्यंग्य भी ‘संक्षिप्तता’ की ओर झुका है। यहां कहना चाहिए कि लंबे और किसी बात तथ्य को विस्तार से कहने लिखने की परंपरा लुप्त सी होती जा रही है। एक मीम या 280-अक्षरों की ट्वीट में वह प्रभाव डाला जा रहा है, जो पहले एक पूरे निबंध अथवा किसी आलेख से निकलता था। इसका अर्थ यह नहीं कि गहराई कम हुई है, बल्कि यह कि माध्यम के अनुरूप भाषा और शैली में बदलाव हुआ है। इसे सभी माध्यमों ने सहजता से स्वीकार भी किया है।

डिजिटल व्यंग्य में चित्र, वीडियो, संगीत और गति का समावेश भी एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। व्यंग्य अब केवल पठन नहीं, बल्कि ‘दृश्यानुभव’ बन चुका है। जैसे यूट्यूब पर व्यंग्य वीडियो, इंस्टाग्राम रील्स में नेताओं के भाषणों का हास्य संस्करण या ट्विटर पर नेताओं के बयानों पर कटाक्ष- ये सब डिजिटल व्यंग्य की नई विधाओं के रूप में हमारे सामने चुनौती हैं। इनसे व्यंग्य का जन-संचार अधिक तेज़, प्रभावी और व्यापक हो गया है। अब वह केवल समाचार पत्र-पत्रिकाओं अथवा किताबों तक सीमित नहीं रह गया है।

डिजिटल युग में व्यंग्य की लोकतांत्रिकता भी बढ़ी है। अब कोई भी व्यक्ति, बिना बड़े प्रकाशक या मंच के, अपने विचार व्यक्त कर सकता है। इससे व्यंग्य लेखन के अवसर बढ़े हैं और अनेक नए लेखक, कलाकार, मीम क्रिएटर सामने आए हैं। इसने व्यंग्य को ‘जन- जन की आवाज’ बनाया है। लेकिन साथ ही, इसमें एक बड़ा खतरा भी जुड़ा है- व्यंग्य और अपमान, आलोचना और नफरत के बीच की सीमा रेखाएं गायब या कहें धुंधली हो रही हैं। सोशल मीडिया पर ‘व्यंग्य’ के नाम पर अक्सर द्वेषपूर्ण और पक्षपातपूर्ण कंटेंट भी देख सकते है, जो व्यंग्य की गरिमा और उद्देश्य को कमजोर कर रहे हैं। इन माध्यमों ने पहले की दुनिया, हमारे मूल्यों को तहस नहस कर दिया है।

डिजिटल व्यंग्य का एक और आयाम उसका क्षणभंगुर होना है। पहले जो व्यंग्य लेख वर्षों तक पढ़ा और याद किया जाता था, आज वह एक मीम या वीडियो कुछ ही घंटों में वायरल होकर फिर कहीं इस भीड़ में खो जाता है अथवा कहें भुला दिया जाता है। यह गति, हालांकि प्रभावशाली है, परंतु दीर्घकालिक स्मृति या साहित्यिक गहराई में कमी लाती है। ऐसे में यह आवश्यक हो गया है कि डिजिटल व्यंग्यकार अपनी सामग्री में गहराई, मौलिकता और साहित्यिक शिष्टता बनाए रखने की दिशा में विचार करें।

आज के डिजिटल व्यंग्यकारों में कुछ नाम सामने आए हैं जिन्होंने तकनीक का रचनात्मक प्रयोग कर परंपरागत व्यंग्य को एक नई दिशा दी है। ऑनलाइन व्यंग्य लेखन में ब्लॉगर्स, इंस्टाग्राम कंटेंट क्रिएटर्स, यूट्यूबर ने ऐसे विषयों को छुआ है जिन्हें पारंपरिक व्यंग्य में कम स्थान मिला करता था- जैसे युवाओं की बेरोजगारी, तकनीकी सर्वेक्षण, ऐप आधारित जीवनशैली, आभासी रिश्ते आदि। ऐसे लेखक और कलाकार नए दौर की चुनौतियों को व्यंग्य के हथियार से संबोधित कर रहे हैं।

यह कहना गलत नहीं होगा कि डिजिटल युग ने व्यंग्य को अधिक जीवंत, अधिक सशक्त और अधिक समावेशी बना दिया है। अब व्यंग्य न केवल साहित्य में है, बल्कि जन-जन की भाषा बन चुका है। सोशल मीडिया पर एक तीखा ट्वीट या एक कटाक्षपूर्ण मीम सत्ता को उतना ही असहज कर सकता है जितना एक लंबे संपादकीय अथवा व्यंग्य आलेख द्वारा पहले होता था। इस शक्ति के साथ एक जिम्मेदारी भी जुड़ी है- व्यंग्य में विवेक, संयम और उद्देश्य की स्पष्टता बनी रहनी चाहिए। उसकी संभावनाएं और आयामों  को खुला रखना चाहिए।

डिजिटल युग में व्यंग्य के इन नए आयामों को समझना केवल साहित्य के लिए आवश्यक नहीं, बल्कि समाज की राजनीतिक और सांस्कृतिक समझ के लिए भी ज़रूरी है। यह युग जिस गति से बदल रहा है, उसमें व्यंग्य ही वह विधा है जो गंभीरता को हास्य की चादर में लपेटकर समाज को उसका यथार्थ दिखाने का कार्य कर रही है। इसलिए, आज का व्यंग्यकार यदि डिजिटल साधनों का उपयोग करते हुए अपनी कलम को नई धार दे रहा है, तो वह न केवल व्यंग्य की परंपरा को आगे बढ़ा रहा है, बल्कि उसे समय के अनुरूप और अधिक प्रासंगिक भी बना रहा है। लेखन के क्षेत्र में भी ऐसे अनुभवों पर अनेक नए व्यंग्यकारों ने कलम चलाई है।

इस प्रकार, डिजिटल युग में व्यंग्य के बदलते आयाम हमें यह संकेत देते हैं कि व्यंग्य एक जीवंत, लचीला और अनवरत विकसित होने वाली विधा है जो अपनी परंपरागत आवरण को त्याग चुका है। अब यह केवल बीते समय का दस्तावेज नहीं, बल्कि वर्तमान का सजीव चित्र और भविष्य की संभावनाओं की नई झलक प्रस्तुत कर रहा है। नई तकनीकें, नए मंच, और नया पाठक वर्ग व्यंग्य को निरंतर नया रूप दे रहे हैं, और यह परिवर्तन हिंदी व्यंग्य साहित्य को और अधिक व्यापक, प्रभावी तथा समकालीन बना रहा है।



Saturday, 30 August 2025

सुरेश कांत


 व्यंग्य विधा को नया तेवर और ताजगी

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सुरेश कांत जी दूसरे व्यंग्यकारों से अलग है। वे एक अद्वितीय व्यंग्यकार हैं। वे बेबाकी से सच को बयाँ करते हैं। उन्होंने व्यंग्य को एक नई धार दी हैं। उनका व्यंग्य लेखन दिनों दिन और अधिक पैना होता जा रहा है। उन्होंने व्यंग्य विधा को नया तेवर और ताजगी प्रदान की हैं।


- दीपक गिरकर

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#पंचकाका_कहिन

सुरेश कांत का व्यंग्य संसार


● अफसर गए बिदेस

● पड़ोसियों का दर्द

● बलिहारी गुरु

● देसी मैनेजमेंट

● चुनाव मैदान में बन्दूकसिंह

● अर्थसत्य

भाषण बाबू

● मुल्ला तीन प्याजा

● कुछ अलग (2018)

● बॉस, तुसी ग्रेट हो! (2018)

● लेखक की दाढ़ी में चमचा (2020)

● सुरेश कांत चयनित व्यंग्य-रचनाएँ

● ऐसा देश है मेरा

● मूल्यों की ममी


व्यंग्य-उपन्यास

● 'ब' से बैंक (1980)

● जॉब बची सो… (2019)

● सियासत


व्यंग्यालोचन

● हिंदी गद्य लेखन में व्यंग्य और विचार

● नरेन्द्र कोहली विचार और व्यंग्य

● व्यंग्य : एक नई दृष्टि


सुभाष चंदर



वे मेरे बड़े प्रशंसक हैं, और मैं उनका
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मैं तो 'हिंदी व्यंग्य का इतिहास' के जमाने से उनका मुरीद था कि कोई कैसे इतनी मेहनत मशक्कत करके इस तरह की एक रेफरेंस बुक लिख सकता है जो स्वयं न तो किसी विश्वविद्यालय में आचार्य है, न ही किसी बड़े प्रकाशक ने उसे बड़ी रकम देकर ऐसी किताब लिखवाने का कोई अनुबंध किया है। बस, उसे एक जुनून था और वो लिखने बैठ गया। कितने ढेर सारे व्यंग्य लेखक सदियों में फैला ऐतिहासिक वितान, व्यंग्यकारों की इतनी पीढ़ियों के इतने नामी और गुमनाम लेखकों के बारे में इतनी सूचनाएं एकत्रित करना, सिलसिलेवार उनको दर्ज करना- बहुत ही कठिन काम था खासकर तब जब यह काम एक नौकरीशुदा, शादीशुदा सद्ग्रहस्थ आदमी कर रहा हो जो रोज रोज पचास-साठ किलोमीटर मोटरसाइकिल चलाता था और इस बड़े काम की व्यस्तता के बीच उसने लेखन के दस और एसाइनमेंट रखें थे।
वे मेरे बड़े प्रशंसक हैं, और मैं उनका।

- ज्ञान चतुर्वेदी 
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निखालिस हास्य और निखालिस व्यंग्य

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निखालिस हास्य और निखालिस व्यंग्य लिखना हर किसी के वश में नहीं होता। सुभाष चंदर को पढ़ते हुए सधे कदमों से रस्सी पर चलकर अपना करतब दिखाने वाले कुशल नट का स्मरण होता रहता है और वे नट विद्या में निपुण नट माफिक व्यंग्य विधा में निष्णात व्यंग्यकार नजर आने लगते हैं जो कथ्य, शिल्प, शैली, भाषा, व्यंजना, कहन आदि के सभी स्तरों पर सधे हुए कदम रखते हुए आगे से आगे बढ़ते हुए लक्ष्य तक पहुंचते हैं।


- बुलाकी शर्मा

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#पंचकाका_कहिन

सुभाष चंदर का व्यंग्य-संसार

● माफ़ कीजिये श्रीमान

● इंसानियत का शो

● आइये स्वर्ग चलते हैं

● कल्लू मामा जिंदाबाद

● थोड़ा हँस ले यार

● बेबी किलर

● हद कर दी आपने

● हँसती हुई कहानियाँ

● बजरंग लल्ला की बारात

● श्रेष्ठ हास्य व्यंग्य- सुभाष चंदर

● चुनिंदा व्यंग्य- सुभाष चंदर

● गौरतलब व्यंग्य

● मेरी व्यंग्य कथाएँ

● एक भूत की असली कहानी

● कुछ हास्य - कुछ व्यंग्य

● दाने अनार के

● हँसते रहो (संस्मरणात्मक व्यंग्य-लेखन)

● शुभचिंतकों की परंपरा


व्यंग्य उपन्यास

● अक्कड़-बक्कड़


संपादन

● बीसवीं सदी की चर्चित व्यंग्य रचनाएं

● बीसवीं सदी की चर्चित हास्य रचनाएं


व्यंग्य-विधा के इतिहास की पहली पुस्तक-

● हिन्दी व्यंग्य का इतिहास


Friday, 29 August 2025

ज्ञान चतुर्वेदी


 व्यंग्य की 'ज्ञान परंपरा'

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ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य में इस कदर मुब्तला लेखक हैं कि व्यंग्य से उन्हें अलगाकर देख पाना संभव नहीं। मानो ज्ञान और व्यंग्य एक-दूसरे के पर्याय बन गए हों, सिक्के के दो कभी न अलग होने वाले पहलुओं की तरह। वे हमारे समय के सर्वाधिक समर्थ व्यंग्यकार हैं। अपने व्यंग्यों में वे समय-समाज के निर्मम सत्यों का मात्र उद्घाटन ही नहीं करते बल्कि उन पर गहन वैचारिक टिप्पणी करते हैं। ये वैचारिक टिप्पणियां भी व्यंग्य की बहुआयामिकता से सम्पन्न होने के कारण पाठक को सहज रूप से प्रभावित करती हैं। कहना न होगा कि व्यंग्यदृष्टि और लोकदृष्टि के सम्यक बहाव में ज्ञान लोकप्रियता और साहित्यिकता की खाई को भरसक पाटने का भी कार्य करते हैं। हम आज उस समाज के नागरिक हैं जहां नंगापन एक जीवनशैली के रूप में स्वीकृत हो गया है। विसंगतियों से भरपूर इस उत्तर आधुनिक समय में ज्ञान चतुर्वेदी के व्यंग्य लेखन को एक ज़रूरी हस्तक्षेप की तरह देखा और पढ़ा जाना चाहिए। कई अर्थों में वह परसाई और जोशी के मानस अभिमन्यु की तरह विकृत यथार्थ के उस चक्रव्यूह को भेदते प्रतीत होते हैं जहां आम लेखक की पहुंच नहीं। उदात्त मानवीयता से परिपूर्ण अपने उद्देश्य में जिसकी नीयत और पक्षधरता शीशे की तरह एकदम साफ है। अपनी इस यात्रा में वे नितांत नई परंपरा गढ़ते हैं जिसे व्यंग्य की 'ज्ञान परंपरा' कहा जाना चाहिए।


- राहुल देव

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#पंचकाका_कहिन

ज्ञान चतुर्वेदी जी के व्यंग्य-संसार


व्यंग्य-संग्रह :

● प्रेत कथा

● दंगे में मुर्गा

● मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ’ 

● बिसात बिछी है

● ख़ामोश! नंगे हमाम में हैं

● प्रत्यंचा

● बाराखड़ी

● अलग

● रंदा

● गैरतलब व्यंग्य

● संकलित व्यंग्य

● चर्चित व्यंग्य


व्यंग्य-उपन्यास :

● नरक-यात्रा 

● बारामासी

● मरीचिका

● हम न मरब

● पागलख़ाना

● स्वांग

● एक तानाशाह की प्रेमकथा