‘राजस्थानी व्यंग्य’ से यहां मेरा अभिप्राय राजस्थानी भाषा में आज़ादी के बाद स्थापित और विकसित एक गद्य विधा के रूप में व्यंग्य-साहित्य से है। इस विषय का सबसे बड़ा व्यंग्य यह है कि राजस्थानी भाषा और साहित्य की विशालता की बात करते हुए हम हिंदी भाषा और साहित्य को पीछे छोड़ देना चाहते हैं। और हमारी इस चाहत को आप एक विशेष अर्थ में देखेंगे तो आपको यकीन करना होगा कि वास्तव में राजस्थानी से हिंदी पीछे है। यह व्यंग्य नहीं, वास्तविकता है कि हिंदी साहित्य का विशाल भवन राजस्थानी साहित्य पर खड़ा हुआ है। आदिकाल में रासो-काव्य के अंतर्गत ‘पृथ्वीराज रासो’ और अन्य रासो रचनाएं मूल रूप में राजस्थानी भाषा की हैं। यह सत्य है कि हिंदी भाषा की नींव में राजस्थानी भाषा है, तो यहां यह भी कहा जा सकता है कि वर्षों पहले राजस्थानी के ऊपर हिंदी को स्थापित कर निरंतर विकसित किया गया है। ऐसे में यहां किसी भाषाई तुलना अथवा मुकाबले की बात व्यंग्य विधा पर चर्चा करते हुए अनुचित है। राजस्थानी भाषा में लिखे गए व्यंग्य और राजस्थान में लिखे गए हिंदी व्यंग्य की बात व्यापक परिदृश्य में सद्भावना से होनी चाहिए। राजस्थानी व्यंग्य की प्राथमिकता मुख्य रूप से सद्भावना ही है, और यहां मैं विषय का दायरा व्यापक करते हुए निवेदन करना चाहता हूं कि मूलतः हमारे संपूर्ण वैश्विक साहित्य की प्राथमिकता सद्भावना है।
राजस्थान के लोक साहित्य में सद्भावना का घटक बहुत व्यापक और विशाल रूप में देखा जा सकता है। यहां आधुनिक साहित्य की व्यंग्य विधा पर बात आरंभ करने से पहले सद्भावना का एक उदाहरण मैं अपने शहर बीकानेर (राजस्थान) की स्थापना विषयक कथा से देना चाहता हूं। एक दिन राव जोधा दरबार में बैठे थे, बीकाजी दरबार में देर से आए तथा प्रणाम कर अपने चाचा कांधल से कान में धीरे-धीरे बात करने लगे। यह देख कर जोधा ने व्यंग्य में कहा— ‘मालूम होता है कि चाचा-भतीजा किसी नवीन राज्य को विजित करने की योजना बना रहे हैं।’ इस पर बीका और कांधल ने कहा कि यदि आपकी कृपा होगी तो यही होगा। और इसी के साथ चाचा-भतीजा दोनों दरबार से उठ कर चले आए तथा दोनों ने कालांतर में बीकानेर राज्य की स्थापना की। इस संदर्भ के हवाले से व्यंग्य की प्राथमिकता की बात कह सकते हैं कि वह सदैव सकारात्मक रूप से ग्रहण किए जाने योग्य हो। साथ ही अपने लक्ष्य का संधान उसका उद्देश्य हो। राजस्थानी साहित्य, लोक साहित्य और कविता में व्यंग्य घटक की भरमार रही है, वहीं जिस गद्य विधा की हम व्यंग्य के रूप में पहचान कर रहे हैं... वह बहुत बाद में धीरे-धीरे विकसित हुआ।
राजस्थानी व्यंग्य के आरंभिक काल में व्यंग्य और हास्य को पर्याय मानकर लिखने वाले बहुत रचनाकार हैं। डॉ. मदन केवलिया का मानना है— ‘हास्य और व्यंग्य दो अलग-अलग चीजें हैं, व्यंग्य बहुत तीखा होता है और सीधा दिल में उतरकर कहीं रह जाता है, यह आर-पार नहीं होता, एक कसक छोड़ देता है।’
डॉ. चेतन स्वामी के अनुसार— ‘व्यंग्य में बात को टेढ़ा करके कहा जाता है, उपदेश और व्यंग्य में एक मूलभूत अंतर होता है कि उपदेश सीधा होता है, व्यंग्यकार उपदेशी नहीं होता लेकिन प्रकारांतर से देखें तो वह उपदेशी ही होता है।’
राजस्थानी में आधुनिक युगबोध की अभिव्यक्ति व्यंग्य के माध्यम से हो रही है। राजस्थानी ठसक के साथ ऐसे व्यंग्य लिखे गए हैं, जिनको पढ़कर बेजुबान लोग भी तिलमिलाते हैं और बोलने लगते हैं। व्यंग्य में यह तिलमिलाना और बोलना बहुत बाद में आरंभ हुआ। प्रेमजी प्रेम के ‘चमचो’ (1973) के बारे में नहुष व्यास का कहना है— ‘चमचो प्रथम हाड़ौती का हास्य-व्यंग्य है।’ राजस्थानी में व्यंग्य की जमीन बनाने में मनोहर शर्मा के ‘रोहिड़ै रा फूल’, श्रीलाल नथमल जोशी के ‘सबड़का’, नृसिंह राजपुरोहित के ‘हास्यां हरि मिळै’, बुद्धिप्रकाश पारीक के ‘चबड़का’ और मूलचंद प्राणेश के ‘हियै तणा उपाय’ का योगदान माना जाना चाहिए।
राजस्थानी व्यंग्य के आदि पुरुष भले कोई भी रहे हों, किंतु व्यंग्य रचनाओं को पुस्तकाकार कर पहली व्यंग्य-कृति व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा की ‘कवि, कविता अर घरआळी’ (1987) है। राजस्थानी और हिंदी में व्यंग्यकार के रूप में ख्यातिप्राप्त बुलाकी शर्मा के हिंदी में अनेक व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हैं, किंतु राजस्थानी में ‘इज्जत में इजाफो’ (2000), ‘आपां महान’ (2020) और 'तेरूंडै में किताब' सहित चार व्यंग्य-कृतियां हैं, अस्तु इस विधा में उनका आधिपत्य है।
अन्य कृतियों की बात करें तो- चेतन स्वामी द्वारा संपादित संग्रह 'रचाव' (1991) इस दिशा का पहला संपादित व्यंग्य-संग्रह है। प्रवासी लेखकों में प्रहलाद श्रीमाळी के ‘आवळ-कावळ’ (1991) और भगवतीप्रसाद चौधरी के ‘सुपनै में चाणक’ (1995) के बाद राजस्थान के युवा व्यंग्यकार के रूप में जिसने सर्वाधिक ख्याति प्राप्त की वह शंकरसिंह राजपुरोहित है। राजपुरोहित ने ‘सुण अरजुण’ (1995) और ‘म्रित्यु रासौ’ (2017) द्वारा व्यंग्य को एक नई भाषा और नई ऊँचाई दी।
सांवर दइया का व्यंग्य संग्रह ‘इक्कयावन व्यंग्य’ (1996) उनके निधन के चार वर्ष बाद प्रकाशित हो सका। इस संग्रह के व्यंग्य उन्होंने काफी पहले लिखे जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और संकलनों में प्रकाशित हुईं। डॉ. नृसिंह राजपुरोहित का कहना था— ‘सांवर दइया में व्यंग्य करने का अच्छा सामर्थ्य है। चादर में लपेट कर जूता मारना हरेक के बस का रोग नहीं है।’
प्रवासी लेखकों में श्याम गोइन्का के तीन संग्रह प्रकाशित हुए- बनड़ां रो सौदागर (1988), लोड़ी मोड़ी मथरी (1994), गादड़ो बड़ग्यो (1999)। राजस्थानी भाषा के व्यंग्य साहित्य के पहली बार 'व्यंग्य-यात्रा' के जनवरी-मार्च, 2010 विशेषांक में पहचाना गया। भारतीय भाषाओं में मध्य यह व्यंग्य की पहचान आलेखों और रचनाओं के अनुवाद द्वारा हुई जिसमें– प्रेम जनमेजय, मदन केवलिया, अजय अनुरागी, शरद उपाध्याय, बुलाकी शर्मा, श्याम गोइन्का, नागराज शर्मा का प्रमुख योगदान रहा है। इस अंक में शरद उपाध्याय के राजस्थानी व्यंग्य पुस्तक री समीक्षा विजय जोशी करते हैं और व्यंग्य अपनी जगह बनाता हुआ प्रतीत होता है।
राजस्थानी व्यंग्य साहित्य में अनेक लेखकों ने अपने मौलिक योगदान से इस विधा को समृद्ध किया है। 2004 में मदन केवलिया की 'गिनिज बुक सारू' और नंदकिशोर सोमानी की 'फाईल री आत्मकथा' जैसी कृतियाँ प्रकाशित हुईं, जो राजस्थानी व्यंग्य लेखन की नई धारा की शुरुआत मानी जाती है। वर्ष 2005 में नागराज शर्मा की 'धापली रो लोकतंत्र', मनोहरसिंह राठौड़ की 'मूंछां री मरोड़', विनोद सोमानी ‘हंस’ की 'पांच छंग तीस' और दुर्गेश की 'उजळा दागी' ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। इसी क्रम में हरमन चौहान की 'लखणां रा लाडा' (2006), शरद उपाध्याय की 'चुगली री गुगली' (2007), देवकिशन राजपुरोहित की 'म्हारा व्यंग्य' (2009) और 'निवण' (2012) आदि कृतियां प्रकाशित हुईं। वर्ष 2010 में नागराज शर्मा की दूसरी कृति 'एक अदद सुदामा', मंगत बादल की 'भेड़ अर उन रो गणित' और श्याम जांगिड़ की 'म्हारो अध्यक्षता कांड' सामने आईं। श्यामसुंदर भारती की 'कलम अर बंदूक' (2012) और सुरेंद्र शर्मा की 'महूँ पिच खोद्यां मानूंगो' (2013) ने व्यंग्य को समकालीन संदर्भों से जोड़ा।वर्ष 2015 में छगनलाल व्यास की 'पत्नीव्रता' और छत्र छाजेड़ की 'जे इयां है तो है', वर्ष 2016 में कैलासदान लालस की 'भला जो देखन मैं चला', वर्ष 2017 में पूरन शर्मा की 'चस्को राम राज रो', वर्ष 2020 में राजेन्द्र शर्मा ‘मुसाफिर’ की 'सत्त बोल्यां गत' और दुलाराम सहारण की 'पताळतोड़ हूंस' जैसे प्रकाशन इस विधा की निरंतरता और समृद्धि के निरंतर प्रमाण बने हैं। इनके साथ-साथ भगवतीलाल व्यास, त्रिलोक गोयल, रामकुमार ओझा ‘बुद्धिजीवी’, प्रहलाद श्रीमाली, गोपाल राजगोपल, सुखदेव राव, पवन पहाड़िया और शिवराज छंगाणी जैसे अनेक रचनाकारों ने भी राजस्थानी व्यंग्य लेखन को विविधता और गहराई प्रदान की है। इसी क्रम में नई रचनात्मकता के साथ कुछ व्यंग्य संग्रह और है, जैसे पवन पहाड़िया का 'छींक, छेती अर छींकी' (2023), रामरतन लटियाल का 'कुण छोटौ कुण मोटौ' और रामजीलाल घोड़ेला का 'जुगाड़'।
यह हर्ष का विषय है कि कृष्ण कुमार आशु का राजस्थानी में पहला व्यंग्य उपन्यास ‘ब्याधि उच्छव’ आया है और उन्होंने प्रेम जनमेजय के व्यंग्य-संग्रह 'हँसो हँसो यार हँसो' का राजस्थानी में अनुवाद किया है। इसी क्रम में बुलाकी शर्मा ने हरिशंकर परसाई के साहित्य अकादेमी से सम्मानित कृति 'विकलांग श्रद्धा का दौर' का राजस्थानी अनुवाद किया है। आशा है कि दीनदयाल शर्मा और ओम नागर के व्यंग्य संग्रह जल्द ही राजस्थानी में आएंगे।
राजस्थानी व्यंग्य-साहित्य को लोकप्रियता और पहचान दिलाने में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। दैनिक 'युगपक्ष' में मंगलवार को प्रकाशित होने वाले मायड़ भाषा परिशिष्ट, 'बिणजारो' और 'माणक' जैसी पत्रिकाओं में निरंतर व्यंग्य-रचनाओं के प्रकाशन से इस विधा को विशेष गति मिली है। इसी प्रकार ‘जागती जोत’, ‘राजस्थली’, ‘मरवण’ जैसी प्रतिष्ठित राजस्थानी पत्रिकाओं में भी व्यंग्य निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं। उल्लेखनीय है कि बहुभाषी पत्रिका ‘हास्य-व्यंग्यम’ में भी राजस्थानी व्यंग्य को नियमित रूप से स्थान मिल रहा है।
राजस्थान के बाहर भी राजस्थानी व्यंग्य की प्रभावशाली उपस्थिति देखने को मिलती है। महाराष्ट्र के मुंबई से प्रकाशित ‘सामना’ समाचार पत्र में लगभग दो वर्षों से ‘रौबीलो राजस्थान’ शीर्षक के अंतर्गत प्रसिद्ध व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा द्वारा लिखित साप्ताहिक राजस्थानी व्यंग्य स्तंभ प्रकाशित हो रहा है। यह स्पष्ट संकेत करता है कि प्रवासी राजस्थानियों में भी अपनी मातृभाषा और व्यंग्य साहित्य के प्रति गहरा जुड़ाव बना हुआ है।
समग्रता से विचार करें तो व्यंग्य साहित्य की वह विधा है जो केवल वर्णन या आलोचना नहीं करती, बल्कि गहरे सामाजिक यथार्थ को उजागर करने का सशक्त माध्यम बनती है। इसकी प्राथमिकता विसंगतियों को पहचानना और उन्हें ऐसी शैली में सामने लाना है जो पाठक को सहज रूप से असहज कर दे — यानी भीतर तक स्पर्श करे। व्यंग्य का मूल उद्देश्य मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना का विकास है। जब रचना पाठक को उसके समय, समाज और भूमिका पर विचार करने को विवश करे, तभी वह एक सच्चे व्यंग्य की कसौटी पर खरी उतरती है।
एक प्रभावशाली व्यंग्य पाठक को केवल विचलित नहीं करता, बल्कि उसे सोचने और आत्मचिंतन की स्थिति में ले जाता है। वह रचना को बाहरी दृश्य से भीतर की सच्चाई तक ले जाने का माध्यम बनती है। लेखक की दृष्टि वस्तुनिष्ठ, विवेकसम्मत और व्यापक होनी चाहिए, जिससे वह किसी व्यक्ति या वर्ग विशेष को लक्ष्य बनाने के बजाय संपूर्ण सामाजिक यथार्थ की आलोचना कर सके। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि व्यंग्य में भाषा की गरिमा और अभिव्यक्ति की शालीनता बनी रहनी चाहिए। उसमें मौलिकता, रचनात्मक दृष्टिकोण और नवोन्मेष हो, तभी वह प्रभावशाली बनता है।
संक्षेप में, व्यंग्य की प्राथमिकता समाज के भीतर छिपी विडंबनाओं, विरोधाभासों और अन्यायों को उजागर करना है। एक सशक्त व्यंग्य पाठक को सतह से खींचकर गहराई में ले जाता है, जहाँ वह न केवल स्थितियों को पहचानता है, बल्कि स्वयं को भी उन स्थितियों के मध्य खड़ा पाता है — यही अनुभूति व्यंग्य की सच्ची सफलता है।
एक सच्चाई यह भी है कि राजस्थानी भाषा के समर्पित रचनाकारों के बीच कुछ रचनाकार ऐसे भी आए हैं जो मूल रूप से हिंदी के व्यंग्यकार हैं, किंतु राजस्थानी में कुछ लाभ को देखकर आए हैं। उन्हें भाषा की गरिमा बनाने की दिशा में कार्य करना होगा।
व्यंग्य की प्राथमिकता यह है कि उसे आलोचना मिले जो दिशा दे सके। आलोचना में शास्त्रीय व्याख्या और देश-विदेश के बड़े लंबे चौड़े उदाहरणों की जगह हम राजस्थानी में हुए काम को देखें जिससे ज्ञात हो कि राजस्थानी व्यंग्यकारों ने प्रायः ग्रामीण और कस्बाई परिवेश में फैले सामाजिक अंतर्विरोधों को केंद्र में रखते हुए अपनी व्यंग्य-दृष्टि को विकसित किया है। यहाँ विषयों की विविधता है – शिक्षा व्यवस्था, भ्रष्टाचार, सामाजिक दिखावा, जातीय जकड़न, राजनीति की नाटकीयता – और इन सब पर एक गहरी, अनुभवजन्य आलोचनात्मक दृष्टि के साथ कटाक्ष किया गया है।
राजस्थानी व्यंग्य में हास्य गौण है और टिप्पणी प्रधान। व्यंग्यकार की दृष्टि तटस्थ न होकर संवेदनशील और विचारशील होती है, जो केवल चुटकी नहीं लेती, बल्कि समाज को आईना दिखाने का काम करती है। इस विधा में भाषा की व्यंजनात्मकता, मुहावरों की तीक्ष्णता और शैली की बोलचाल वाली जीवंतता उसे अधिक प्रभावशाली बनाती है।
इस प्रकार, राजस्थानी व्यंग्य एक ऐसी विधा बनकर उभरा है जो न केवल स्थानीयता को अभिव्यक्त करता है, बल्कि वैश्विक व्यंग्य की परंपरा में भी अपनी जगह बनाता है। यह विधा जनभाषा में जनचिंतन की सशक्त अभिव्यक्ति है, जो न केवल पढ़ी जाती है बल्कि सुनी, समझी और महसूस भी की जाती है।
●
नीरज दइया

